धारावाहिक: मेरी, तेरी, उसकी बातें: सब्जी-भाजी खर्च पर नियंत्रण; चूहे (भाग-७)
चूहे हमारे उन सगे सम्बन्धियों या उन मतलबी दिखावे के दोस्तो जैसे हैं जो अपनी जरुरत के समय कभी भी अपनापन दिखाने आ जाते हैं। दूर देश शहर हो या गाँव ये पहुँच ही जाते हैं। वस्तुतः ये हमारे आस -पास ही रहते हैं। शहर हो या गांव चूहों को कोई न कोई मौका मिल ही जाता है फिजूल खर्ची पर नियंत्रण कर अपने हिस्से का सामान ले जाने का, अगर आसानी से न मिले तो इनके वसूली के तरकीब अनुसंधान के योग्य होते हैं। इनके करतब अत्यंत रुचिकर होते हैं।
घटना हमारे बचपन की है। हमारे घर कच्चे-पक्के ईंटों के बने हुए थे। रसोई का फर्श और दीवारें भी कच्ची ही थी इसलिए बारिष के समय प्रायः शीलन हो जाया करती थी। चूहे इन कच्ची ईंटों की दीवारों में बिल बना लेते थे, जब भी मौका मिलता ये बाहर निकल कर कुछ खाने की चीजें लेकर अपने बिल में भाग जाते थे। प्रत्येक खाने के सामान को वजनी ढक्कन से ढँक कर रखना जरुरी होता था। उस समय हमारा निवास स्थान अपने गाँव से लगभग पचास किलोमीटर दूर एक "शिक्षक शिक्षा शिक्षण संस्थान तथा व्यवसायिक शिक्षण प्रशिक्षण केंद्र" में था। गांव पास होने के कारण प्रायः अपने गांव के खेतों में उपजने वाले सब्जी - भाजी खास कर परवल ,बतिया, ख़रबूजा, तरबूजा आदि बैल गाड़ी द्वारा खेतों से घर आते रहते थे। खेतों में काम करने वाले, जिन्हें परिवार के सदस्यों की तरह रखा या माना जाता था, उनसे गीदड़ों एवं नीलगायों की कहानियाँ सुनने को मिलती थी, खास कर उनका झुण्ड में आकर रातों-रात खेत के पके-अधपके फल-सब्जियों का खा जाना या उसे अधखाया कर बर्बाद किये जाने की। हम सभी बच्चे उसे ध्यान से सुनते थे क्योंकि खेत का रखवाला होने के कारण उसकी कहानियाँ जीवन्त अनुभवों पर आधारित होती थी।
जब ज्यादा फल-सब्जियाँ आते थे तो उसे पड़ोसियों एवं जरुरत मंद लोगों में यूँ ही बाँट दिया जाता था परन्तु जब कम आते थे तो उसे सिर्फ घर में ही खर्च किया जाता था। खेतों से एक मुश्त फसल की बिक्री एवं एक-दो बारिश के बाद या गंगा नदी में पानी बढ़ने पर सब्जियों का आना कम हो जाता था। उन्हीं समयांतराल में उस मौसम की आखिरी फसल के बाद बतिया,परवल की भरी टोकरी घर में आये थे। इन टोकरियों को गीले कपडे से ढँक कर माँ ने रसोई घर के एक कोने में डलवा दिया था। ये सामान्य सी बात थी जिस पर ध्यान देना जरुरी नहीं है।
उसी समय के दरम्यान एक दिन ऐसा भी हुआ कि माँ ने परवल भरी टोकरी रसोई घर के अंदर कोने में रखवाई लेकिन दूसरे दिन माँ परेशान थी कि टोकरी भर परवल में से मात्र डेढ़ सेर के आस-पास ही बचे थे, आखिर बाकी परवल लगभग तीन से चार सेर के आसपास गए कहाँ? माँ का वाक्य काफी रोचक था " सारे परवल ! पता नहीं कैसे कहीं खो गए हैं!" खैर बारिश में उस समय यूँ ही सब्जियों की थोड़ी किल्लत हो जाती थी। झींगा-झिंगली, कद्दू-कटहल आदि के आने में थोड़ी देर भी होती थी, अतः माँ ने उन्हीं बचे हुए परवलों को दो-तीन दिन चलाया था। कुछ स्थानीय दुकानों से भी सब्जियाँ खरीदी जाती थी। करेला-ककड़ी-साग-आलू, कसैले कटहल आदि, जो हम बच्चों को पसन्द न होने के बावजूद भी खानी पड़ती थी इसलिए कुछ दिनों के बाद जब माँ ने फिर से भरवाँ परवल बनाया तो हम खुश हो गए थे। पिताजी ने पूछा कहाँ मिला ? तो साधारण सा उत्तर था टोकरे के पीछे कोने में कुछ परवल पड़े थे और कुछ बिखरे हुए थे, शायद पहले ठीक से देखा नहीं होगा ! ताजे ही थे। दूसरे दिन फिर से माँ को वैसे ही कोने में कुछ बिखरे दस-बारह परवल मिले तो उनका चौंकना स्वाभाविक था, फिर क्या था ? घर के टंडेल ( नाबलिग नौकर जिसे घर के बच्चों की तरह ही लेकिन घर के छोटे-मोटे काम या टहल-टिकोरे के लिए न्यूनतम वेतन एवं खाने-कपडे के खर्च पर चौबीसों घण्टे घर पर ही रखा जाता था) एवं सभी बच्चों को बुला माँ पूछने के आवरण में हमारे चेहरे देखते हुए बातें करने लगी कि कोई परवल छुपाने और उसे बिखेरने की बदमाशी कर रहा है।
हम सभी बच्चे निरुत्तर थे इसलिए हमें खेलने के लिए भेज दिया गया था लेकिन माँ उसके बाद थोड़ी चौकन्नी थी। उस रात लालटेन कम करने के बाद भी माँ ठीक से सोई नहीं थी, उन्हें रसोई से कभी-कभी कुछ गिरने की आवाज आती थी लेकिन कच्चे सीलन वाली जमीन तथा कच्ची ईंटों की दीवारें होने के कारण ये आवाज ज्यादा परेशान करने वाली नहीं थी। वहाँ खुले आँगन में घर के किनारे से सटे लगभग स्वतंत्र इकाई की तरह ही रसोई घर का कमरा था। रसोई घर के दरवाजे में ऊपरी हिस्से में जंजीर थी जिसे चौखट के ऊपरी हिस्से की अंग्रेजी के 'यू' की आकृति जैसी कील में फँसा दी जाती थी। ताला नहीं लगाया जाता था; इसलिए माँ का मन नहीं माना, वह हम बच्चों को सोता छोड़ सिर्फ भैया को लेकर रसोई घर की तरफ गयी, साँकल खोलते, लालटेन की रौशनी तेज करते ही अंदर का दृश्य देखने लायक था। .....चूहे खुलेआम घुड़ दौड़ मचा रहे थे, दो-तीन हत्था ऊपर के छेद से परवल भी गिर रहे थे, टोकरी के अंदर आलू एवं कुछ सब्जियाँ कुतरे भी जा रहे थे, चने की बोरी, आटे का झोला जिसे माँ टिन के बड़े डब्बे में स्थान्तरित नहीं कर पायी थी, उन्हें कुतर कर राशन भी नीचे गिरा रहे थे। विभिन्न छोटे -छोटे छेदों से अपने घरों(बिलों)में ले जा रहे थे। बदमाशी करने वाले कौन थे, अब ये ज्ञात हो चुका था।......
"ये" कहानी तो हमने दूसरे दिन सुनी थी जब भैया और माँ दोनों हँसते -हँसते बता रहे थे लेकिन जो मजेदार वक्तव्य माँ ने परवल के लिए दिया था, वह था ....चूहों को परवल नहीं दिया था इसीलिए गुस्से में आकर अपने हिस्से के साथ हमारे हिस्से का भी परवल उठा कर चला गया था। हमलोग बहुत ज्यादा परवल की सब्जियाँ बना लेते थे जिसके कारण प्रायः बचा हुआ गाय की नाद में डालना पड़ता था इसलिए भी चूहे ने उसे अपने बिल में छिपा लिया था ताकि परवल सूखे नहीं। चूहा हमें सब्जियाँ हिसाब से खर्च करने के लिए कह रहा है इसीलिए प्रतिदिन सिर्फ कुछ ही परवल निकाल कर देता है। तुमलोग सब्जी थाली में लेकर छोड़ो नहीं अन्यथा परवल की तरह अन्य खाने की सामग्री और सब्जियों पर भी चूहा अपना नियंत्रण कायम कर करेगा।
आज जब लगभग पचपन साल के बाद उन घटनाओं की याद आती है तो हँसी के साथ-साथ 'थाली में लेकर खाना बर्बाद नहीं करना चाहिए' के सन्दर्भ में माँ के समझाने के अनोखे तरीके पर भी मुस्कराहट आ जाती है। कितना अनोखा था अपने हिस्से की सब्जी वसूली करने के बाद, सब्जियों की बर्बादी और खर्च पर चूहों द्वारा किया गया नियंत्रण! और उससे भी अनोखा एवँ अविस्मरणीय था माँ के समझाने का तरीका।