Chief Editor Dr Sumangala Jha

सम्पादकीय: सबहिं नचावत राम गोसाईं

मनुष्य जाति सदियों से संघर्षशील रहा है। समय समय पर अनेकानेक सभ्यता एवं संस्कृति ने अपनी गरिमा और सौंदर्य के साथ उदारवादी प्रवृतियों को अपना कर सम्पूर्ण संसार में अपना विस्तार किया है। मानवीय सभ्यताओं के उदारीकरण की गाथाएं हमारे पौराणिक ग्रन्थों में पाए जाते हैं जिसे हम अपना इतिहास भी कह सकते हैं। अनेकानेक सभ्यताएं चरमोत्कर्ष तक पहुंच कर,निखर कर लुप्तप्राय हो गईं हैं। दैवीय गुणों से सम्पन्न देवताओं की कथाओं में भी दैवीय प्रवृत्ति, संस्कार, सभ्यता एवं संस्कृति का दानवी शक्ति, राक्षसी संस्कृति से निरंतर होते संघर्ष का वर्णन है। भारतीय पौराणिक ग्रंथों के अनुसार विध्वंश और विनाश, करण और कारण दोनों अपने आप ही ढूंढ लेते हैं। ऐसे भी कहावत है कि :

'जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।'

आज मनुष्य अपने देश और नागरिकों को अनेक सुविधाओं से सम्पन्न करने के लिए, उन्हें सुरक्षा मुहैया कराने के लिए अरबों खर्च कर रहा है। अत्याधुनिक हथियारों का स्वदेशी उत्पादन देश के नागरिकों को सुरक्षा का आत्मबोध तो देता है परन्तु यही आत्मबोध जब अन्य देश को दबाने की कोशिश कर उसकी संप्रभुता को चुनौती देता हो तो यह युद्ध का कारण बन जाता है। यही नियम मानव जाति, उनकी संस्कृति सभ्यता एवं संस्कारों पर भी लागू होता है जब यह अन्य संस्कृति सभ्यता पर जबरन हावी हो कर उसे जड़ से मिटाने की कोशिश करता है तो प्रतिरोध युद्ध में परिवर्तित हो जाता है। आज सम्पूर्ण संसार का वातावरण भी युद्ध के विषाक्त, ज्वलनशील, विनाशकारी पदचापों की ध्वनि को महसूस कर रहा है। असभ्य मनुष्य की दानवी प्रवृति दबदबा कायम रखने की, किसी सभ्यता, संस्कृति, देश एवं किसी मानव जाति को समूल नष्ट करने की मनोवृत्ति विनाश को आमंत्रित कर रही है। असभ्य महत्वाकांक्षी मानसिकता ने कई सभ्य, विकसित सम्पन्न देशों को युद्ध में झोंक, उन्हें अंदर ही अंदर खोखला कर दिया है। ईमानदारी से देखा जाए तो सम्पन्न देश विकास से ज्यादा किसी अन्य देश के विनाश के लिए खर्च कर रहा है। विश्व स्तर पर आज विकास नहीं विनाश ही बढ़त बनाए हुए है।

विश्व स्तर, वैश्विक स्तर, मानवीय सभ्यताओं के मनोविज्ञान के अनुसार भी मनुष्य नहीं, मनुष्य का विनाश ही जीत रहा है। वर्तमान में विनाशकारी युद्ध से शापित हो भूखे - प्यासे दर- दर भटकने वाले या शरणार्थी शिविर में रहने वाले भी मनुष्य ही हैं। दानवी प्रवृति के उत्कर्ष ने मनुष्य जाति को अपने आगोश में ले रखा है। फिलहाल यह दिशाहीन मंडराता हुआ विनाश का काला बादल इस विश्व को कितनी क्षति पहुंचाएगा यह तो वक्त ही बताएगा। परन्तु सामान्य मनुष्य तो आत्म मंथन द्वारा युद्ध के परिणाम का अनुमानित विश्लेषण कर स्वयं को जिंदा देख कर ही संतुष्ट रहने के लिए मजबूर है। समकालीन संदर्भ में इतना ही कह शांति महसूस करते हैं कि :

"उमा दारु जोषित की नाईं, 'सबहिं नचावत राम गोसाईं'।

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