Hindu and Hinduism

मैं हिन्दू हूँ लेकिन हिन्दू-धर्म से अनभिज्ञ

मेरा बचपन बिहार के एक पिछड़े जिले के पिछड़े गाँव में एक निम्न मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में गुजरा है। पिताजी एक व्याकरणाचार्य पंडित थे। हम चारो भाइयों की पढ़ाई बिहार सरकार के उसी गाँव के स्कूल में हुई और मैं AFMC पूना से MBBS पढ़ाई कर वायु सेना अधिकारी बन गया। गाँव के स्कूलों में सामान्य ज्ञान का अभाव था और वह अभाव कुछ हद तक अब भी है। मुझे बहुत बाद में पता चला कि वेद चार प्रकार के और पुराण अट्ठारह हैं। वायुसेना से सेवानिवृत्ति के बाद ही मैनें चारो वेद पढ़े लेकिन वेदों के मन्त्रों के गूढ़ तत्वों से अभी भी अनभिज्ञ हूँ। वैसे रामायण और गीता भी पढ़ी है लेकिन आंशिक रूपेण ही। यज्ञोपवीत उपरान्त कुछ पूजा विधि भी बताई गयी थी जिसका अनुकरण करने का मौका फौज में रहते कम ही मिला। मैं नहीं मानता कि मुझे हिन्दू धर्म की ज्यादा समझ है। एक ब्राह्मण पंडित के पढ़े लिखे संतान की हिन्दू धर्म के प्रति समझ की अगर यह हालत है तो मैं समझ सकता हूँ कि अपवाद छोड़ अन्य हिन्दुओं को अपने ही धर्म की कितनी समझ और उसके प्रति कितनी आदर और आस्था होगी। यह एक चिंता का विषय है कि उदारवादी विचार धारा के कारण हम सनातन वैदिक धर्म से विगलित होते जा रहे हैं।

बचपन में धर्म और धार्मिक गतिविधियों में तरह तरह के पर्व त्यौहार देखे हैं जिनमें से कुछ तो हर घर परिवार में होते थे और कुछ सार्वजनिक तौर से सारे ग्रामीण मिलकर मनाते थे। कम शब्दों में ईश्वर-भक्ति, सम्पूर्ण सृष्टि का सम्मान, सभी जीवों के प्रति दया, दीनों को दान, मात-पिता तथा जन्मभूमि का आदर आदि कार्य धर्म के होते तथा इनके बिपरीत वाले अधर्म। देवताओं में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, सृष्टि पालक विष्णु तथा जीव श्रष्टा व संहारक महेश को श्रेष्ठतम तथा अन्य सारे देवी देवताओं में उन्हीं के कमोवेश अंश होने की मान्यता रही है। इसी तरह भगवान् विष्णु एवं महेश के पूरक माता लक्ष्मी और पार्वती भी दिव्यस्त्री शक्ति की पराकाष्ठाएँ हैं। ज्ञानी लोग देवभक्ति की निराकार व साकार दोनों रूप में पूजा करते रहे हैं। निराकार रूप में हम देवी देवताओं का आवाहन पूजा ध्यान अपने अपने घर-आँगन व देवस्थान में करते रहे हैं जिसका सटीक उदाहरण आज के युग में सत्यनारायण भगवान् की पूजा कथा है। साकार रूप उन देवी देवताओं के प्रभाव क्षेत्र का काल्पनिक प्रारूप दिखाता है जो हर आम मानव की समझ में स्वतः आ सके। यह साकार रूप हमें मंदिरों व अन्य प्रतिष्ठानों में देवी देवताओं के अन्यान्य रूप में मूर्तियों, नक्काशियों या चित्रों में मिलता है। देवी-देवताओं के अनेकों सिर, हाथ, हाथों में प्रतीकात्मक अस्त्र शस्त्र उनके प्रभाव-क्षमता व उनकी शक्ति के द्योतक हैं। इन सबों के अलावे सृष्टि व प्रकृति के हर रचनाओं को भी हिन्दूधर्म में महत्ता दी गयी है,चाहे वे सजीव हों या निर्जीव, चल या अचल ।

धर्म का आचरण हमारे धर्मग्रंथों में व्यख्यानों एवं परस्पर वार्तालापों के द्वारा दी गयी है। वेद हो या उपनिषद ये ज्ञान,साहित्यिक समृद्धि, पठन-पाठन की शैली आदि के दृष्टिकोण से आधुनिक युग में भी अतुलनीय है। गीता का ज्ञान तो साक्षात परमात्मा की उक्ति माना गया है जो जीव मात्र के कल्याण के लिए है। वस्तुतः, मानव, जीव-जंतु, प्रकृति आदि के प्रति कल्याणकारी भाव ही धर्म हैं।जिसके कारण' वसुधैव कुटुम्बकम' या 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' का मंत्र विश्व व्यापी है, भले ही छद्मनीतियों वाले इसका पालन कभी भी न करते हों! इन सबों के अलावे भी धर्म के और भी कई आयाम हैं जिससे हममें से ज्यादा लोग अनभिज्ञ हैं। जो भी आचरण इन सभी धार्मिक कार्यों के बिपरीत हों वे अधर्म हैं।


मूर्ति पूजा मुख्यतया गणेशपूजा, जन्माष्टमी और दुर्गा पूजा के रूप में होती थी, वैसे कहीं-कहीं मूर्ति बनाकर रामनवमी और काली पूजा भी मनाई जाती थी। स्कूल - कालेजों में अक्सर माँ सरस्वती की प्रतिमा प्रतिष्ठान होती थी। इन पूजा द्वारा हम बच्चों को बस मूर्ति को प्रणाम करना ही नहीं सिखाते बल्कि ज्ञान के भंडार पुस्तकों के प्रति जिज्ञासा, गुरु के प्रति आदर, कला और ज्ञान की देवी के प्रति आस्था का भाव भी जागृत करते हैं। साथ ही नारी के विभिन्न रूप ज्ञान की देवी सरस्वती; शक्ति, सौंदर्य, युध्द में निपुण भक्तों के प्रति ममतामयी दुर्गा; अन्यायी दानवों का रक्तपान करने वाली काली; सौभाग्य-समृद्धि दात्री लक्ष्मी या स्वयँ की अपनी माँ जो अनेकानेक चरित्र धारण कर बच्चों को पालती है, यहाँ पूजनीय हो जाती है। किसी कला या नारीजाति के प्रति अबोध मन में श्रद्धा और आदर का भाव जागृत करने के लिए इससे अच्छा और क्या तरीका हो सकता है। यद्यपि माँ सरस्वती के दर्शन तो हम बसन्त ऋतु में प्रकृति के आह्लादित संगीत, सुंदरता जीवन रस के संचार का आनंद लेना अपने आप में अनोखा अनुभव है।

उस उम्र में हमें तो यह भी पता नहीं था कि भगवान् की मूर्ति को प्रणाम करते समय कुछ मनोकामनाएँ भी की जाती है तथापि जब भी किसी प्रणम्य जन के पाँव छूकर प्रणाम करता था तो आशीर्वाद अवश्य मिलते थे जो आत्मिक आनन्द की अनुभूति देती थी। हम जानते हैं हिन्दू धर्म एक संज्ञा के रूप में कुछ वैयक्तिक धर्म के शुरू होने के बाद शायद डेढ़ दो हजार साल पूर्व ही प्रचलित हुआ है जिसके पूर्व यह 'सनातन, वैदिक या आर्य' धर्म जाना जाता था। विश्व की प्राचीनतम धर्म होने की वजह से इसमें कई विषमताएँ भी आईं होंगी जिसके कारण इसमें से पहले जैन, फिर बौद्ध और हाल में सिख धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। हमारे ही कुछ हिन्दू भाई यह भी कहते हैं कि हिन्दू धर्म नहीं अपितु एक जीवन शैली है और वे शायद ठीक ही कहते हैं। तभी तो मुस्लिम आतताइयों द्वारा ६०० सालों से अधिक विध्वंसात्मक, युद्धरत, राजनीतिक उथल-पुथल, हमारे आध्यात्मिक धरोहरों को तहस नहस करने के बावजूद, हमारी नस-नस में बसी जीवन शैली के सस्कारों एवं संस्कृति को नष्ट नहीं कर पाए। अनेकों विद्वान व शंकराचार्य अपने धर्म की बारीकियों से भली भाँती परिचित थे, हैं और रहेंगे भी। लेकिन भारत के अनेक राज्यों की मूढ़ प्रसाशन-व्यवस्था ने अध्यात्म वोध कराने वाले संस्कृत विद्यालयों को बंद कर सनातन वैदिक धर्म, समृद्ध संस्कृति पर आघात किया है। परिणामस्वरूप संस्कृत विद्वानों के कमी के कारण आम हिन्दुओं का आध्यात्मिक ज्ञान से वंचित रहना लगभग निश्चित है। सनातन धर्म एवं समृद्ध संस्कृत भाषा का ज्ञान भले ही आज के हिंदूओं को कम है परन्तु इसका यह मतलब कतई नहीं कि वे धर्मरत नहीं हैं।

सुसंस्कृत, समृद्ध, जिज्ञासु-जिजीविषा युक्त, उदारता पूर्ण, पवित्र, आभिजात्य जीवन शैली ही कमोवेश हिन्दू धर्म है या कुछ और यह मैं नहीं जानता। अधिकाँश हिन्दुओं का जीवन यापन तो इन्हीं क्रिया -कलापों में व्यतीत हो समाप्त हो जाता है। कुछ इने गिने लोग ही, उनमें भी ख़ास कर वृद्ध, कुछ इने गिने प्रसिद्द मंदिरों या धामों में भगवान् के प्रतिरूप के चंद सेकण्ड्स के लिए दर्शन कर पाते हैं फिर भी वे अवश्य जाते हैं यद्यपि कई स्थलों पर भीड़ एवं अव्यवस्था के कारण ध्यानस्थ होने से पहले ही उन्हें धक्का देकर बगल कर दिया जाता है।

हममें से अधिकाँश हिन्दुओं को धर्म के बारे में न तो कभी कुछ शिक्षा दी गयी है न ही स्कूलों कॉलेजों के किसी किताब में संक्षिप्त में ही सही, कुछ पढनें को मिला है। आज के तथाकथित आधुनिक शिक्षा प्रणाली की परीक्षाओं को उत्तम अंक से उत्तीर्ण करने की होड़ में हम हिन्दू अपने आध्यात्मिक ज्ञान से वंचित होते चले गए हैं। स्वतन्त्रता-पूर्व क्रूर मुसलमान साशकों ने हमारे आध्यात्मिक ज्ञान के प्रतिष्ठानों को बर्बरता से तहस नहस कर हमें अपने आध्यात्म से अलग कर दिया था। अनेकानेक अत्याचार के बावजूद भी ब्राह्मणों ने संस्कृत भाषा के पठन-पाठन एवं आध्यात्मिक ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखने का भरसक प्रयत्न किया है। परन्तु स्वतंत्रोत्तर नेहरूजी ने हमें एक ऐसा धर्म निरपेक्ष भारत दिया जिसमें हम अपने अध्यात्म से परे होते जा रहे हैं। हिन्दू विरोधी कई नीतियों के कारण हमें अपने विद्यालयों में संक्षिप्त में भी वेद, उपनिषद, गीता और पुराणों का ज्ञान नहीं मिल सकता है। हिन्दू हो कर भी हम भारत में ही अपने हिन्दू धर्म के आध्यात्म ज्ञान से वंचित हैं।

सबसे बड़ा प्रश्न उठता है कि हिन्दुओं के लिए भारत में क्या किए जा सकता है ? आज जाति-विषमता आपस में कटुता लाने लगी है अतः सबसे पहले तो जातिप्रथा को समाप्त कर सारे हिन्दुओं को एकता के एक सूत्र में बांधा जाना चाहिए। इसके लिए क़ानून बनाने और सामाजिक परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। कोई भी हिन्दू अपने दैनिक जीवन में धार्मिक आयामों से वंचित न रहे चाहे वह मंदिरों में प्रवेश, दर्शन, पूजापाठ, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह या श्राद्ध विधि ही क्यों न हो। दूसरी प्राथमिकता हिन्दुओं में आध्यात्मिक ज्ञान देने की है जो विभिन्न स्तरों पर होना चाहिए... प्रारंभिक, व्यावहारिक और विशिष्ट। प्रारंभिक ज्ञान हर धर्म के बच्चों को उनकी स्कूली पाठ्यक्रम के मार्फ़त हो। व्यवहारिक आध्यात्म वे हैं जिन्हें हिन्दू अपने दैनिक जीवन में अनुकरण कर सके। यह कार्य मंदिरों, सभागृहों, सार्वजनिक स्थानों में सत्संगों तथा विभिन्न मीडिया या टीवी चॅनेल्स के मार्फ़त प्रशिक्षित पंडितों या ज्ञानियों द्वारा कारगर रूप से किया जा सकता है। विशिष्ट आघ्यात्म वे विषय हैं जिनसे वैदिक / सनातनी आध्यात्म में निपुणता मिल सके और वे लोग अन्यान्य स्तरों पर हिन्दुओं को प्रवचन देकर उनका उत्थान कर सकें । बड़े बड़े मंदिरों से प्राप्त धन देश के हिन्दुओं की आध्यात्मिक उत्थान व विकास के लिए ही होना चाहिए, इसलिए आवश्यक है कि मंदिरों का नियंत्रण हिन्दुओं के हाथ में हो। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में मंदिरों के धन दुरुपयोग जो सरकार इस्लामियों या ईसाइयों के तुष्टिकरण के लिए देती है, उसे पूर्णरूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। समय आ गया है कि हिन्दुओं पर हुए ऐतिहासिक अन्यायों का निवारण कर उनके धार्मिक संस्थान, आध्यात्मिक ज्ञान, सनातन वैदिक धर्म का विकास किया जाना चाहिए।

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