Hockey: No child's play...

छोटी-छोटी बातें -३ (हॉकी स्टिक)

दक्षिण पूर्व बिहार, संथाल परगना में घोरमारा नामक स्थान पर एक छोटा 'शिक्षक शिक्षण एवं व्यवसायिक प्रशिक्षण केंद्र" था/शायद अभी भी है। आज से अंठावन साल पहले उस केंद्र के आस - पास झाड़ -झंखाड़ और और धान के विस्तृत खेत भी हुआ करते थे। बचपन में हमें साँप, बिच्छू, लाकड़, गीदड़ आदि का नाम लेकर डराया तो जाता था लेकिन मौका मिलते ही हम सभी स्टाफ के बच्चे घर से बाहर उन्हीं झाड़ों के बीच खेलते होते थे। बर्षा के समय धान के खेतों के घुटने भर पानी में छप - छप कर स्वयं को भिंगा लेना, बीमार पड़ना आम बातें थी।

खेलने के ज्यादा साधन न होने के बावजूद हमें खेल से फुर्सत नहीं होती थी। संस्थान के खेल के मैदान में कभी कभार खेल लेते थे... . खो - खो, फुटबाल, कभी कबड्डी, हमारे पास दो हॉकी स्टिक था तो दो हमने जिद कर संस्थान के खेल विभाग से निकलवाया था तो कभी - कभी हॉकी का खेल भी होता था। खेल का नियम यही था कि जिसने खेलने का सामान लाया है, बॉल, हॉकी स्टिक या अन्य किसी खेल का सामान तो नियम भी उसी का बनाया हुआ चलेगा क्योंकि हमें किसी भी खेल का कोई नियम मालूम नहीं था।

मेरे बड़े भैया जो नेतरहाट में पढ़ते थे, मँझले भैया जो बिड़ला विद्या मंदिर नैनीताल में पढ़ते थे, तीसरे जो रामकृष्ण मिशन में पढ़ते थे, उन तीनों ने ही पिताजी से चिरौरी हमें हॉकी स्टिक दिलवाया था एवं खेलना सिखाया था परन्तु सभी बच्चों के पास हॉकी स्टिक नहीं थे इसलिए पेड़ की टहनियों से हॉकी स्टिक बना कर खेल खेला जाता था। एक महीने की छुट्टी हमारे साथ बिता कर बड़े तीनों भाई अपने स्कूलों के हॉस्टल में छुट्टी के बाद वापस चले गए थे। मैं और मेरा छोटा भाई फनी के पास एक - एक हॉकी स्टिक था ही, दूसरे दो बच्चों को जो हमारी बातें मानते थे उन्हें ही खेलने के लिए देते थे। हॉकी स्टिक की वजह से ही हम अपने - अपने समूह के कैप्टन भी थे नियम भी हमारा ही चलता था।

कई सुविधाओं के बावजूद, किसी भी खेल से ज्यादा मजा हमें झाड़ - झंकार में घूमना और हॉकी स्टिक से, पीले जंगली फल (पियार) बढ़हर, शरीफा, अमरूद आम या अन्य कोई भी फल झंटाना ज्यादा आनंद देता था। पानी में गड्ढे ढूंढने में या पानी से किसी फूल या फल को खींचने में भी हॉकी स्टिक का ज्यादा उपयोग होता था। ऐसे अपने झुण्ड के साथ मैं और मेरा छोटा भाई विभिन्न खेलों में व्यस्त रहते थे कि एक दिन हम बच्चों द्वारा हॉकी स्टिक कहीं किसी झाड़ या पानी में खो गया। काफी देर तक खेलने की सभी जगहों पर ढूंढने पर भी वह नहीं मिला। संध्या का धुंधलका बढ़ता जा रहा था फिर भी हम दोनों भाई - बहन हॉकी स्टिक ढूंढते रहे थे जिसे नहीं मिलना था और न ही वह मिला।

अंधेरा होने के कारण डरते - डरते देर से घर पहुंचे तो माँ - पिताजी दोनों गुस्से में थे, निगाह में आते ही हमारी पेशी हुई, कारण पूछा गया तो घिघियाते हुए हमने बताया ..... " हॉकी स्टिक्स खो गये थे उसे ही ढूंढने में लगे थे,..... ध्यान नहीं रहा,.....अंधेरा हो गया..... सारे नहीं मिले .......सिर्फ एक ही मिला!

छूटते ही सवाल पूछा गया स्टिक कहाँ है?

डरते - डरते छोटे भाई फनी ने हॉकी स्टिक लाकर पिताजी के हाथ में दे दिया.... .. इससे पहले कि हम कुछ दलीलें दे पाते देखते ही देखते उसी हॉकी स्टिक से हमारी पिटाई हो गई।

रात में लालटेन की रोशनी में दोनों के मुँह, हॉकी स्टिक के खोने के दुःख और पिताजी से पिटने के दुःख के कारण सूजे हुए थे। छोटा भाई कुछ ज्यादा चिन्तित और बहुत गंभीर बना हुआ था। ... थोड़ी देर के सन्नाटे के बाद मुझसे रहा नहीं गया ..., पूछ ही बैठी तुम्हें बहुत ज्यादा मार पड़ गई क्या? .... दर्द हो रहा है..... वह चुप ही रहा.....दुबारा फिर से सहानुभूति भरे स्वर में उसी सवाल को दोहराया ...तो उसने ना के भाव - भंगिमा में सिर हिलाया... लेकिन फिर भी.....उसी तरह गम्भीरता मुँह फुलाए, ..नाक शुरुकते, ..कभी भेंभियाते तो कभी दूसरे बच्चों पर दोषारोपण करते बोलता भी रहा था। गंभीरता से दोनों में विचार - विमर्श भी हो रहा था कि आखिर संस्थान से निर्गम कराया गया हॉकी स्टिक खोने से पहले किस - किस हाथ था? क्यों दोस्तों ने ध्यान नहीं रखा? बर्षा के पानी के बहाव में आखि़र किधर, कहाँ बह गया?.....जो भी हो! समस्या गम्भीर थी, पिटाई तो हो ही चुकी थी। सजा के तौर पर उस रात का खाना बन्द था और दो दिनों के लिए घर के बाहर खेलने के लिए जाना भी मना था । हम दोनों ही चुप और चिंतित थे। खाना बन्द किए जाने के कारण भूख भी ज्यादा तेज हो गयी थी, स्वयं पर नियंत्रण रख बार - बार अपने हाथों को सोच मुद्रा में गाल पर रखते हुए बोला... सोच रहा हूँ.! .... अं... क्या?.....'ये'.... उंगली से इशारा करते हुए .... ये.... ये हॉकी स्टिक भी खो गया होता तो अच्छा होता ... इसको ......इसको..को .. ओ..लेकर आए..ए..इसीलिए पिट गए।

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