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हिन्दुओं में धर्म-गुरु और नेतृत्व का अभाव

आध्यात्म और सनातन धर्म का सदैव गहरा सम्बन्ध रहा है।सनातन धर्म की सरलता, सहजता, शांतिप्रियता, मानव-कल्याण और मानवीय प्रवृत्ति इसे एक ऐसा नैसर्गिक दृष्टिकोण प्रदान करता है कि आज अधिकाँश हिन्दू अपने धर्म ग्रंथों से अनभिज्ञ होते हुए भी हिन्दू आस्था से ऐसे जुड़े हैं जैसे मानो जल की असंख्य बूँदें नदी के प्रवाह में अपने गंतव्य जलधि में लीन होती चली जाती है। आज हम आम हिन्दुओं को सनातन के अनंत का आभास तो है परन्तु उसका ज्ञान बहुत कम।लेकिन वह आभास जिस भी रूप में हमारे अंतर्मन में है वह ज्ञान का दीप जलाए है।यही कारण है कि अपने धर्म ग्रंथों से अनभिज्ञ और आज के शिक्षा प्रणाली के मापदंड पर अशिक्षित रहते हुए भी अनेकों लोग महाज्ञानी रहे हैं। यह ज्ञान शिक्षा से नहीं अपितु आचरण से प्राप्त हुआ है।

आक्रांताओं के अति उत्पीड़न के बावजूद जीवित रहना

भारत में रह रहे मूल हिन्दुओं की विरासत अवश्य ही अति सुदृढ़ रही होगी तभी तो वे लगभग ६०० साल के आतताई मुसलमान शासकों के आतंक को झेल सके। मुसलमानों ने तो अरब जनजातियों और उनकी आस्थाओं का इस क्रूरता से विनाश किया कि वे समूल लुप्त हो गए।उन्होंने पारसियों का भी नरसंहार किया।वे सनातनियों का भी नरसंहार करने के लिए भारत आए थे लेकिन हम अपने पुरखों के कृतज्ञ हैं कि उन्होंने उन आतताइयों की मनसा पर पानी फेर दिया और सनातन धर्म को अजेय रखा। मुसलामानों ने भारतीय धर्म की आस्था पर चोट किया था और वह प्रहार बहुत ही तीव्र था जो हमारे हजारों सालों की धरोहर को निर्मूल करने को अपने जिहाद का लक्ष्य बना लिया था।उन दिनों सनातनधर्म के आचरण, विचरण, प्रवचन आदि का केंद्र हमारे मंदिर होते थे जहाँ धर्म के ज्ञाता विद्यार्थिओं को पढ़ाते थे और सरल भाषा में सनातनी आस्था के तत्व व सार आम लोगों को प्रदान करते थे।इसीलिए मुसलमान आक्रांताओं ने हमारे मंदिरों को ही ध्वस्त करना शुरू किया।उनका आतंक और भय इतना था कि धर्म का प्रचार-प्रसार लगभग रुक सा गया और नतीजा हम सबों के सामने है। भारत में इस्लाम और ईसाई विचारधारा का प्रचार-प्रसार अपने शासकों के संरक्षण में तीव्रता से साम-दाम-दंड-भेद के साथ शुरू हो गया।

इस्लाम और इसाईत्व का घातक प्रसार

मुसलमान अपने कुरान और हदीश बचपन में ही मदरसों में पढ़ाते हैं। इसके अलावे हर शुक्रवार को मस्जिद जाना अनिवार्य होता है जहाँ इमाम द्वारा ‘खुतबा’ पढ़ा जाता है जो कुरान और हदीश को अपने व्यवहार में लाने की तालीम और तरकीबें बताता है। यह तो ज्ञात ही है कि इस्लाम का जन्म ही दूसरे धर्मों के प्रति घृणा और असहिश्रुता के लिए हुआ था अतः ‘खुतबा’ के दौरान हर मुसलमान को यह बताया जाता है कि अपने मुसलमान भाइयों की सहायता और इस्लाम को आगे बढ़ाने के लिए क्या-क्या करने चाहिए। वहाँ उन्हें यह भी याद दिलाया जाता है कि इस्लाम को न मानने वाले ‘काफिर’ हैं और उनके अल्लाह ने काफिरों को नाश करने के लिए ही इस्लाम बनाया था। अपनीं लक्ष्य सिद्धि के लिए इनके पास ‘जिहाद’ का मन्त्र है जिसको मानना सभी मुसलामानों के लिए अनिवार्य है।

उधर ईसाईयों ने अपने धर्म का प्रचार-प्रसार भी प्रखरता से शुरू किया था।भारत में उनको सफलता इसलिए भी मिली कि यहां के शूद्र कहे जानें वाले दलित और जनजाति के कुछ लोग त्रस्त थे और मिशनरियों ने उन्हें धन और जाति-उत्थान का प्रलोभन देकर धर्मांतरण के लिए राजी कर लिया।इनमें बड़ी बात यह थी कि इनके पास इस्लाम वाला ‘जिहाद’ का तलवार नहीं था और कम लोगों को ही जबरन धर्मांतरण कराया गया।ज्यादातर लोग अपनीं मर्जी से ही ईसाई बने। बाद में ब्रिटिश शासन के दौरान यूरोप का धन, मिशनरी शिक्षा और ईसाई धर्म की कवच से ब्रिटिश से सुरक्षा का प्रलोभन भी धर्मांतरण का कारण बना।हर रविवार को ईसाइयों के लिए चर्च जाना लगभग अनिवार्य है जहाँ इन्हें बाइबिल की शिक्षा और उसे दैनिक जीवन में व्यवहार में लाने की प्रेरणा दी जाती है।

हिन्दू धर्म के प्रचार में बाधा और प्रसार की कमी

सनातन धर्म में भी हमारे शीर्ष धर्म गुरु सबों के श्रद्धेय शंकराचार्य होते थे।इनकी नियुक्ति तत्कालीन सम्राटों के संरक्षण में कराये जानें वाले सप्ताहों के शास्त्रार्थों के बाद होता था।उनका धार्मिक परामर्श सबों को मान्य होता था। ईसा से पूर्व आठवीं शताब्दी में स्थापित किए गए. चारों मठ आज भी चार शंकराचार्यों के नेतृत्व में सनातन परम्परा का प्रचार व प्रसार कर रहे हैं; वे हैं रामेश्वरम में श्रृंगेरी पीठ, जगन्नाथपुरी का गोवर्द्धनपीठ, द्वारिका का शारदा मठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ। इसके अलावे पूरे देश में बारह ज्योतिर्लिंगों हैं सोमनाथ, मल्लिकार्जुन .महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर, केदारनाथ, भीमाशंकर, विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, वैद्यनाथ, नागेश्वर, रामेश्वरम और घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग । मध्यकाल में यही हमारे अध्यात्म ज्ञान के श्रोत थे। इन मठों के शंकराचार्यों तथा ज्योतिर्लिंगों के परमाचार्यों का धर्म ज्ञान लगभग उतना ही होता है जितना रोम के पोप का लेकिन पोप के पास रोम का सल्तनत होता है, विश्व भर के चर्च का दायित्व और ईसाईयों की श्रद्धा।लकिन हमारे शंकराचार्यों को न तो हमारे शीर्ष मंदिरों का दायित्व है न ही आम हिन्दू उन्हें जानते हैं, श्रद्धेय होने की बात तो दूर। इस हीनता के लिए हमारी राजनीति और प्रशासन जिम्मेदार है जिसनें उनकी जिम्मेदारी तथा गतिविधियों को उनके अपने मंदिरों तक ही सीमित कर दिया है।फिर इसमें उनका कोई दायित्व नहीं रह जाता कि देश भर के मुख्य मंदिरों में पुजारी व पंडित धर्म के ज्ञाता, प्रचारक-प्रसारक के योग्य हैं या नहीं। लगभग इसी के अनुरूप जैन के तीर्थांकर और बौद्ध भिक्षु भी होते थे । ईसाई और इस्लाम में भी धर्म गुरुओं की प्रथा इसी के अनुरूप शुरू हुई और अभी भी चल रही है। इन सबके प्रतिकूल भारत में इस्लाम आने के बाद हिन्दू सम्राटों का लोप होने लगा और साथ ही साथ शंकराचार्यों के वर्चस्व पर भी प्रहार किया गया।धीरे धीरे हमारे धर्म गुरुओं के प्रभाव का ह्रास होने लगा और फिर सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार रुक सा गया।

सनातन धर्म की आस्था गीता, वेदों, पुराणों तथा उपनिषदों सी आती रही है। जब सनातन धर्म के प्रचार प्रसार केंद्र, मंदिर ही तोड़े जानें लगे और पंडितों व धर्म शिक्षण पर पावंदी सी लग गयी तो स्वतः ही धर्म ज्ञान का ह्रास होने लगा। आम आदमी के लिए इन ग्रंथों का ज्ञान अगम्य, पहुँच से परे होता गया और अंगरेजी शिक्षा की होड़ में आज भी यही हो रहा है।अधिकाँश आम मंदिरों में अज्ञानी पुजारी बैठे हैं जिन्हें सनातन धर्म का ज्ञान लगभग नहीं के बराबर है। आज ११० करोड़ हिन्दुओं में मुश्किल से गिनती के कुछ ऐसे आचार्य हैं जो वेदों, उपनिषदों और पुराणों के ज्ञाता हैं।उनमें से भी अधिकाँश की आस्था और कर्तव्य-कृति अपने अपने मंदिरों तक ही सीमित है।देश की सरकार या आम हिन्दुओं से उनका कोई सरोकार नहीं रखा गया है; न उनकी सलाह का और न ही उनकी आध्यात्मिक दिशा निर्देश का।वे आम हिन्दुओं की समस्याओं से अनभिज्ञ से हैं और आम हिन्दुओं को उनके प्रति कोई लगाव रह गया है । वैसे कहने के लिए विश्व हिन्दू परिषद् के पहल पर दोएक मठों के शंकराचार्य ने धर्म संसद बुलाने की परम्परा १९८४ में शुरू की थी और फिर १९९४ में लेकिन यह कहीं न कहीं मंदिरों के इर्द-गिर्द राजनीतिक एजेंडों का शिकार बन गया।हिन्दुओं का उत्थान करने के वजाय ये ज्यादातर मुस्लिम विरोधी आवाजों में खो गए।कभी कभार तो नेताओं या अपरिपक्व साधुओं द्वारा कुछ एक मुस्लिम विरोधी आवाज इस कदर निकले कि उनपर मुकद्दमें तक दायर हो गया। हिन्दुओं के आध्यात्मिक विकास के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।

हिन्दू धर्म में सदैव से प्रचार प्रसार की कमीं रही है।दूसरी आस्थाओं के लोगों को 'मानव धर्म के हितैषी व शांतिप्रिय' हिन्दू धर्म से जोड़ने के लिए कभी भी सकारात्मक प्रयत्न ही नहीं किया गया।ईसाई और इस्लामिक आस्थाओं के जन्म के बाद लोगों के समूहों को जब साम, दाम, दंड से धर्म परिवर्तन कराया जानें लगा तो उससे बचने के लिए हिन्दू धर्म के पास कुछ नहीं था।अगर हमारे प्राचीन धर्म गुरुओं ने दूसरी आस्थाओं के अनुयायियों को सनातन में लाने के लिए एक सुदृढ़ मार्ग बनाया होता तो ये दोनों आस्थाएँ हमारे देश में अपना पाँव पसार ही नहीं पाती।उसी तरह जिन्होनें लाचार वस धर्म परिवर्तन किया था, अगर वे आधे मन ही सही, आना चाहें, तो हमारे पास कोई ऐसी संस्था नहीं जो आगे बढ़कर उनका हाथ थामे और बिना हीनता का एहसास कराए (जैसे गोबर या गौमूत्र) उन्हें हिन्दू धर्म में शामिल कर सके। फिर अगर शामिल किया भी तो किस वर्ण में हो, इसका दिशा निर्देश होना चाहिए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने स्वतन्त्रता पूर्व जबरन धर्म परिवर्तन कराये लोगों को वापस लाने के लिए जो आर्य समाज बनाया था उसमें कितने परेशानी उठानी पडी थी यह इतिहास में दर्ज है।अभी मोदी सरकार के आने के बाद भी जब कुछ लोगों के 'घर वापसी' का प्रयत्न किया तब भी काफी प्रतिरोधों को झेलना पड़ा था। वैसे अच्छा तो यही हो कि हिन्दू धर्म को आज के समयानुसार वर्णमुक्त कर दिया जाए।

हिन्दू धर्म का राजनीतिक अवहेलना

स्वतन्त्रता उपरान्त भी नेहरू की हिन्दुओं के प्रति उदासीनता और मुसलमानों का शिक्षा मंत्री बनाया जाना हिन्दुओं के लिए बहुत महँगा पड़ा। मामला सिर्फ मुसलमान शिक्षा मंत्रियों के मजहबी दृष्टिकोण का नहीं था।बाद के जो हिन्दू भी शिक्षा मंत्री बने, सवाल उनकी हिन्दुओं के प्रति उदासीनता का भी है चाहे उनकी स्वयं की अवधारणा हो या उनके नेतृत्व का।लेकिन यथार्थ यही है कि एक ओर जहाँ हिन्दुओं को धर्म निरपेक्षता के नाम पर विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा से दूर रखा गया और वह भी यह जानते हुए कि उनके लिए मंदिरों में धार्मिक शिक्षा का न तो प्रवन्ध है न ही ऐसा कुछ शुरुआत करने की वैचारिकता। मठों और ज्योतिर्लिंगों को देश में हिन्दू शिक्षा या आध्यात्मिकता से जानबूझ कर नहीं जोड़ा गया।

अल्पसंख्यक के नाम पर ‘पर्सनल लॉ बोर्ड’ बनाकर मुसलमानों के लिए मदरसे की स्थापना हर स्तर पर करने दी गयी जहाँ कुरान के ज्ञाता इमाम वहाँ के लोगों को हर शुक्रवार ‘खुतबा’ सुना सके । इसी तरह देश के हर शहरों, इलाकों में इस तरह चर्च बनाए गए हैं जहाँ हर रविवार को हर ईसाई को बाइबिल के जानकार पादरियों द्वारा धर्मज्ञान दिया जा सके ।हिन्दुओं के लिए भी लगभग हर शहर, हर इलाके में मंदिर तो है लेकिन धर्म ग्रंथों के ज्ञाता पंडित नहीं जो हिन्दुओं को अपनी आस्था से जोड़ सके।ज्यादातर पंडित बस पूजा-पाठ कराने के लिए होते हैं और वह भी कर्मकांड से अनभिज्ञ।मुसलमानों और ईसाईयों के लिए एक श्रेणीवद्ध धार्मिक ढाँचा या व्यवस्था है जिसके तहत इमामों या पादड़ियों को नियुक्त किया जाता है लेकिन हिन्दुओं के लिए ऐसा कोई श्रेणीवद्ध धार्मिक ढाँचा नहीं है। आज हिन्दुओं के आध्यात्मिक विकास के लिए आवाज लगाने वाला न कोई हिन्दू धार्मिक नेता और न ही कोई संस्था है।

हिन्दू एकता का अभाव

आतंरिक वर्ण व्यवस्था के कारण हिन्दुओं में दृढ एकता की कमी रही है लेकिन ईसाईयों और इस्लाम में तो और भी अधिक विषमताएँ हैं। उनकी तो साम्प्रदायिक लड़ाईयाँ भयावह रहीं हैं और अभी भी शिया सुन्नी शाफी हनाफी आदि आदि कई देशों में वर्षों से युद्धरत हैं। इसकी तुलना में हमारी विषमता तो कुछ भी नहीं है। हाँ ! भारत में ईसाई और इस्लाम आने के बाद हमारी विषमताओं को लेकर आपसी फूट डालना इनका मकसद रहा है जिससे ये हमें तोड़ सकें। वैसे भारत में हाल के दशकों में दलित वर्गों के सशक्तिकरण और उत्थान के बहुतों प्रावधान लाए गए है फिर भी छिटपुट घटनाएँ होती रहती है जो अवांछनीय, शर्मनाक हैं। लेकिन इन घटनाओं को लेकर विभाजन की राजनीति कर रहे लोग और भी निंदनीय हैं।

वैसे कहने को लगभग डेढ़ दर्जन हिन्दू संस्थाएँ हैं जिनमें से ज्यादातर के बारे में लोगों को पता तक नहीं। वे सब के सब आपनें आप में संकुचित हैं और अपनी अपनी सिमित विचारधारा के संरक्षण सम्पादन में लगे हैं। सबसे प्राचीन हिन्दू महासभा तेज हीन है।कईयों पर कई तरह के प्रतिबन्ध लग चुके हैं तो कुछ के आपसी मतभेद भी हैं।

अखिल विश्व गायत्री परिवार, आर्य समाज, ब्रह्म समाज, ब्रह्म कुमारी, ISKON, चिन्मय मिशन, दुर्गा वाहिनी, कांची कामकोटि पीठम्, माता अमृतमयी मठ, रामकृष्ण मिशन आदि संस्थाओं का दृष्टिकोण कुछ संकुचित सा, हिन्दू धर्म की सिर्फ उन धार्मिक विधाओं और विचारों को लेकर चलतीं है जिनका वे समर्थन करतीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्रीय जागरण का एक बहुत ही सशक्त संस्था है जो आम तौर से राष्ट्रीयता का बोध कराए अनेकों कल्याणकारी कार्यों में लगा है। लेकिन यह सिर्फ हिन्दुओं के लिए ही नहीं अपितु अन्य धर्मावलम्बियों के लिए भी काम करता है। वैसे इनकी पहुँच व्यापक है जो अक्सर बीजेपी के चुनाव प्रसार में सहायक होता है और इसीलिए अन्य हर अन्य राजनितिक दलों को आरएसएस से सख्त चिढ़ है, हमेशा उसे बदनाम करने में ही लगे रहते हैं । सिर्फ विश्व हिन्दू परिषद् एक ऐसी संस्था है जो हिन्दू धर्म, मर्म व कल्याण के अलावे हिन्दू राजनीति जागरण से भी प्रेरित है। यह एक ऐसी संस्था है जो हिन्दुओं की आशाओं और अभिलाषाओं का द्योतक हो सकता है। इसके लिए इन्हें हिन्दुओं की सारी संस्थाओं को एकजुट कर आगे बढ़ना होगा जिसका इन्होंनें अपने अस्तित्व के ५५ सालों में कोई दृढ प्रयास नहीं किया है। इनके नेतृत्व में दूरदर्शिता की थोड़ी कमी लगती है। भारत में अभी भी विहिप (VHP) को कम लोग ही जानते हैं। आज के इंटरनेट युग में भी इकी पहुँच सिमित है। आम हिन्दू इनसे जुट नहीं सकते, अपना दृष्टिकोण साझा नहीं कर सकते, ये भी बस अपने आप में ही मगन प्रतीत होते हैं । पूरे हिन्दू समाज को लेकर चलने की VHP में न तो मनसा दिखाई देती है न ही प्रयास। जिस तरह हिन्दू सम्प्रदाय में आपसी मतभेद के चलते शताब्दियों से आपसी एकता की कमी रही है उसी तरह ये मुट्ठी भर हिन्दू संगठन भी आपस में एकता की कमी के अभाव में बिखरे से प्रभावहीन हैं।

उधर दो एक ऐसी संस्थाएँ भी हैं जो कभी कभार हिन्दुओं पर अत्याचार का विरोध करती हैं जैसे बजरंग दल एवं श्रीराम सेना।लेकिन ये छोटी मोटी समस्याओं में ही उलझे व संघर्षरत है।अगर आज मुसलमानों का जिहादी गुट तलवार उठा ले (जिसकी वे अक्सर धमकी भी देते हैं) तो ये छिटपुट समूह बेअसर रहेंगे और प्रशासनिक क़ानून व्यवस्था की तो बात करना ही बेमानी होगी। राजनीति से लिप्त पुलिस तो 'मुसलमान वोट बैंक' का ही साथ देगी। ऐसी संभावना है कि बेचारे शांतिप्रिय हिन्दू गाजर-मूली की तरह अपने ही देश में काट-मार दिए जाएंगे। इन सब के अलावे भी आज उभरते हिन्दू समाज को नीचा दिखाने के लिए कुछ इस्लामी और बामपंथी संस्थाएँ दुष्प्रचार में भी लगीं हैं (पढ़ें “Hate against Hindu, Hinduism and Hindutva” https://articles.thecounterviews.com/articles/hate-against-hindu-hinduism-hindutva/) . सच कहूँ तो आज हिन्दू अपने धर्म और आस्था से इतने परे हो गए हैं कि ये स्वयं भी जुड़ना नहीं चाहते। स्वतन्त्रता के ७० साल बाद ही सही, तथा-कथित हिन्दूवादी मोदी सरकार ने भी इस विषय पर अपनीं तन्मयता नहीं दिखाई है। आज सरलतम रूप से पूरे हिन्दू समाज को अपनी आस्था व अध्यात्म से जोड़ने की परम आवश्यकता है।

हिन्दू समस्याएँ व उनका समाधान

हिन्दू विचारधारा एक बहुत ही मजबूत मानव धर्म सतम्भ रही है। धर्म व आस्था से कहीं अधिक हिंदुत्व एक जीवनशैली है और इसीलिए मुस्लिम व अंग्रेज आक्रांताओं से यह बच सका। हिन्दुओं की मध्यकालीन वर्ण व्यवस्था में कुरीतियों की वजह से हममें सदैव से एकता की कमी रही है और इसका नुकसान हमें बार-बार उठाना पड़ा है।यह रूढ़िवादी वर्ण व्यवस्था आज भी हमारी एकता के राह में अवरोध बना पड़ा है। मनुस्मृति की अत्यधिक भेदभावपूर्ण वर्ण-व्यवस्था आज के इक्कीसवीं सदी में हमें अमान्य है, इसका संशोधन आवश्यक है। आज 'हिन्दू एकता' की परमावश्यकता है अतः हमारे शीर्ष धार्मिक गुरु को वर्णव्यवस्था समाप्त करने के लिए साहसिक कदम उठाना ही पडेगा और उसी अनुरूप संविधान में संशोधन भी लाना पडेगा। हिन्दुओं की दयनीय अवस्था बदलनें के लिए हिन्दू एकता सर्वोपरि है। यही हमें सशक्त कर सकता है जो यहाँ के मुसलमान व ईसाई नहीं चाहते हैं।

हिन्दुओं की दूसरी समस्या है हमारे आध्यात्मिक ज्ञान का ह्रास।बचपन से ही हिन्दुओं को मानवता और शांतिप्रियता का पाठ, संक्षिप्त में ही सही, पढ़ाना आवश्यक है। सनातनी या हिन्दुओं के आध्यात्म को मौलिक रूप में ही सही, शिक्षा प्रणाली से जोड़ा जाए। इसके लिए यह आवश्यक है कि गीता, वेद, पुराण तथा उपनिषदों का सार हर हिन्दू विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए । यह विश्व वन्धुत्व के लिए अत्यावश्यक है। आज हमें ऐसे सनातनी या हिन्दू धर्म गुरुओं की आवश्यकता जो हिन्दू धर्म में आई उन विकृतियों और विषमताओं को दूर कर सके। इससे कुछ हद तक इस्लाम और ईसाईयों की प्रसारवादी प्रवृत्ति भी कम होगी।हालाँकि इस्लाम के जिहादी दैत्यों से निपटने के लिए या तो राष्ट्रीय और राज्य स्तरों पर धार्मिक क़ानून व्यवस्था कायम रखने के लिए एक अलग क़ानून बने जो जिहादी प्रवृत्तियों का समूल नाश कर सके या फिर हिन्दुओं को ही अपना एक ऐसा संगठन बनाना पडेगा जो जिहादियों से यथोचित रूपेण निपट सके। सबसे उपयुक्त होगा भारत को एक ऐसा हिन्दू राष्ट्र बनाना जहाँ अन्य धर्म या आस्थाओं की भी अवहेलना न होऔर हिन्दुओं की अत्यधिक समस्याओं का समाधान भी (पढ़ें:‘भारत एक हिन्दू राष्ट्र हो’ https://articles.thecounterviews.com/articles/india-hindu-nation-rashtra-indian-religions/) । 

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