विभाजन विभीषिका (भाग-2) और राजनीति
(Note: लेखक का मानना है कि देश के अधिकांश मुसलमान शांतिप्रिय और देशभक्त हैं लेकिन उनकी विवशता है कि वे अपने समुदाय के अतिवादियों, कट्टरवादियों, जिहादियों तथा आतंकवादियों के खिलाफ आवाज नहीं उठाते, प्रतिरोध नहीं करते। आज मुस्लिम समुदाय से जो आवाजें आ रही हैं वो कुछ अपवादों को छोड़कर सिर्फ और सिर्फ कट्टरवादियों के हैं। इसी परिपेक्ष में इस लेख को पढ़ा और समझा जाए।)
अब जबकि आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, हमें उस ऐतिसासिक "विभाजन विभीषिका" पर एक नजर अवश्य डालना चाहिए। इतिहास गवाह है कि जिसनें उससे सबक न ली उसे अपनी अकर्मण्यता की कीमत चुकानी पडी है।ऐसे ही कुछ हालात भारत के भी हैं। विभाजन विभीषिका के कई पहलू हैं जिसमें सर्वप्रथम पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओं और सिखों की कट्टरवादी मुस्लिमों के हाथों प्रताड़ना था जो सर्वाधिक पीड़ा दायक था जो आज की पीढ़ी को बताया ही नहीं गया है।ग़दर फिल्म में इसका झलक दिखाया गया था लेकिन वह उन प्रताड़नाओं का १० प्रतिशत भी नहीं था।फिल्म बनाने वाले मुस्लिम क्रूरता शायद अपने वास्तविक घृणित रूप में नहीं दिखाना चाहते थे। जितनी भी मुस्लिम हिंसा दिखाई गयी वह इसलिए संभव था कि केंद्र में कांग्रेस सरकार नहीं थी। विभीषिका के अन्य आयाम जैसे विभाजन की शर्तें, विभाजन रेखा, अंग्रेजों का पक्षपात, हिन्दुओं में मतभेद, नेहरूजी में दूरदर्शिता की कमीं, विस्थापितों की संपत्ति का अनियोजन, हिन्दू हितों की अनदेखी तथा नेहरूजी की गंदी राजनीति आदि समाहित हैं। हालांकि ये सारे आयाम महत्वपूर्ण हैं, इस लेख में विभाजन की राजनीति का संक्षिप्त वर्णन होगा क्योंकि अन्य आयाम अन्यत्र वर्णित हैं।
विभाजन विभीषिका में राजनीति के कई आयाम हैं।इसमें तत्कालीन धार्मिक उन्माद, कांग्रेस का हिन्दुओं व हिन्दू-हितों के प्रति उदासीनता, कांग्रेस का आज़ादी आंदोलन का एक राजनैतिक दल के रूप में वर्चस्वता और दूसरे दलों को उन उपलब्धियों से बंचित रखना, सत्ता में बने रहने के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण और वोट बैंक राजनीति आदि शामिल था। यह एक मुख्य कारण था कि गांधीजी ने कांग्रेस पार्टी के विघटन की सलाह दी थी लेकिन नेहरूजी ने नहीं माना।
इतिहास चीख चीख कर कह रहा है जब-जब भारत में या इसके सीमावर्ती इलाके में मुसलमानों की आवादी बढ़ी है वह कैंसर की बीमारी की तरह सावित हुई है और फिर उस हिस्से को काटना पड़ा है। विगत में हमें कंधार वाला अंग अफगानिस्तान बनाकर मुसलमानों के चलते काटना पड़ा था और फिर १९४७ में स्वतन्त्रता ही हमें इस मूल्य पर मिली थी कि मुसलमान बाहुल्य भारत के सीमावर्ती भाग का उनके लिए पाकिस्तान बनाकर विभाजन हो ।विभाजन पश्चात भी तत्कालीन गंदी राजनीति ने कुछ ऐसा खेल खेला कि भारत की सरजमीं पर कैंसर लगा ही रहा और उसी का परिणाम है कि वह कैंसर इतना फ़ैल गया है कि अब फिर से यत्र-तत्र, यदा-कदा मुसलमानों के लिए भारत के पुनर्विभाजन की बात उठ रही है। ‘नेहरू-लियाक़त’ समझौता से पकिस्तान तो जल्द ही पलट कर अपने अल्पसंखयकों को प्रताड़ित कर धर्मांतरण या पलायन के लिए बाध्य करना शुरू कर दिया, परन्तु नेहरू और कांग्रेस नें मुसलमानों को प्रताड़ित होने देना तो दूर, अतिरिक्त सामाजिक सुरक्षा देते गए। भारत सरकार ने कभी पाकिस्तान को यह महसूस नहीं कराया कि अगर वहाँ हिन्दू और सिख सुरक्षित नहीं रह सकते तो यहाँ के मुसलमान भी असुरक्षित हो सकते हैं ।
हिंदूंओं की सदैव से सिर्फ एक ही मातृभूमि रही है, भारत वर्ष। १९४७ के बटवारे में जो हिन्दू या मुसलमान विस्थापित हुए वहअंग्रेजों से आज़ादी पाने के लिए प्रत्याशित था। मोपल्ला हिन्दू नरसंहार, बंगाल विभाजन और उर्दू आंदोलनआदि अनगिनत हिन्दू मुस्लिम विद्वेष कुछ ऐसे पहलू थे जिससे यह लगभग तय था कि तत्कालीन हिन्दू मुस्लिम सद्भाव लगभग न के बराबर रह गया था।कांग्रेस हिन्दू हितों के प्रति उदासीन था और मुस्लिम लीग बस मुसलमानों का वर्चस्व खोज रहा था।हिन्दुओं के आत्म-सम्मान के लिए ही ‘हिन्दू महासभा’ की स्थापना मुख्यतया उन्हीं लोगों द्वारा की गयी थी जो तत्कालीन कांग्रेस पार्टी प्रमुख अजमल खां, चितरंजन दास, अली जौहर और गांधी के ‘हिन्दू-विरोधी’ या ‘मुस्लिम-परस्त’विचारधाराओं से आहत थे, जिनके समय मोपल्ला नरसंहार हुआ था।मुस्लिम लीग ने तो बहुत पहले ही मुसलमानों के लिए एक अलग मुल्क पाकिस्तान की घोषणा कर दी थी। हिन्दुओं को यह डर था कि विभाजन रोकने के लिए गांधी जी कहीं 22% मुसलमानों का 84% हिन्दुओं के ऊपर अधिपत्य न मान लें जिससे भारत में मुसलमानों का अंग्रेज पूर्व वाला इस्लामिक वर्चस्व स्थापित हो जाए, जिससे वे बड़ी मुश्किल से बाहर निकल पाए थे। तत्कालीन प्रमुख हिन्दू संगठनों तथा नेताओं का मानना था कि शांतिप्रिय हिन्दू कभी भी मुसलमानों के बीच सुरक्षित नहीं रह पाएँगे। अतः मुसलमानों की स्वायत्तता तथा हिन्दुओं की सुरक्षा के लिए देश का विभाजन लगभग तय था और इसमें नेहरू की कुछ सत्तालोलुपता भी थी ।
विभाजन तो हुआ लेकिन यह एक अप्रत्याशित विभीषिका लेकर आई। सीमा रेखा के दोनों तरफ लाखों की जानें गयी, बेघर और अनाथ हुए। लेकिन नेहरू और गांधी जी की गंदी राजनीति हिन्दुओं और सिखों का हक़ मार गयी।ये दोनों कौम पाकिस्तान में अपना सब कुछ छोड़ सिर्फ जिंदगी और अस्मिता बचाकर भाग आए।उनकी संपत्ति को पाकिस्तान सरकार ने हड़प लिया और यहाँ से गए मुसलमानों को कमो-वेश दे दिया लेकिन वहाँ से पलायित हिन्दू एवं सिखों को नेहरू सरकार ने कुछ भी नहीं दिया।उलटे यहाँ से विस्थापित मुसलमानों की संपत्ति उनके वक्फ बोर्ड को सौंप दी।गांधी जी तो भगवान के प्यारे हो गए लेकिन नेहरूजी की गंदी राजनीति हिन्दुओं का हक़ मार गयी। बेचारे सरदार पटेल भी जल्द ही भगवान के प्यारे हो गए और कांग्रेस की काली राजनीति में हिन्दुओं का भला चाहनें वाला विरला ही कोई रह गया। अगर कांग्रेस सरकार (नेहरू जी) चाहती तो पाकिस्तान से विस्थापित हर हिन्दुओं और सिखों को बसने तथा जीविकोपार्जन के लिए यथोचित जमीन दे सकते थे ।यह संभव भी था क्योंकि दोनों देशों से विस्थापितों की संख्याँ लगभग बराबर थी।लेकिन नेहरू जी के मन में खोट था।उन्होंने वोट बैंक की गंदी राजनीति तभी से शुरू कर दी थी।पाक-विस्थापितों को कुछ भी नहीं दिया।सिर्फ एक छोटी सी अस्थाई टेंट में उन्हें झोंक दिया।
पकिस्तान तो मुसलमानों के लिए बन गया परन्तु गांधी और नेहरू ने भारत को ‘हिन्दू’ या ‘भारतीय धर्म’ वाला राष्ट्र नहीं होने दिया। कारण ? मुसलमान और ईसाई नाराज़ हो जाते। लेकिन इसका नतीजा क्या हुआ ? भारतीय धर्मावलम्बियों के लिए आज अपना कोई भी देश नहीं है। आज विश्व के २३ %मुसलमानों के लिए ५७ देश, ३२ % ईसाइयों के लिए १६ देश, 5% बौद्धों के लिए तीन धर्म-परस्त देश हैं लेकिन भारतीय धर्म के लिए ठन-ठना-ठन। कुछ भी नहीं।(read ‘विभाजन विभीषिकाऔर भारतीय धर्म’ https://articles.thecounterviews.com/articles/indian-partition-and-indian-religions/).
भारत-विभाजन के पश्चात जहाँ पाकिस्तान से लगभग 60% हिन्दुओं, सिखों को पलायन करने के लिए बाध्य किया गया, भारत के अ-सीमान्त क्षेत्र से लगभग ६० से ७० प्रतिशत मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए। इसमें कांग्रेस का बड़ा हाथ था। उन्होंने भारतीय मुसलमानों को यह विश्वास दिलानें की भरसक कोशिश की कि पाकिस्तान बनाए जानें के बावजूद भी भारत उनका घर है। इससे कांग्रेस व नेहरू को एक सुदृढ़ ‘वोट बैंक’ भी मिल गया। पाकिस्तानी हुकूमत यह बात जानती थी इसीलिए अपने कौम को भविष्य में सुरक्षा दिलाने केलिए ‘नेहरू-लियाक़त’ समझौता किया जिसके अनुसार दोनों देशों में रह रहेअल्पसंखयकों को सुरक्षा प्रदान करना था। पकिस्तान तो जल्द ही अपने वादों से पलट कर अल्पसंखयकों को प्रताड़ित कर धर्मांतरण या पलायन के लिए बाध्य कर दिया, परन्तु नेहरू और कांग्रेस नें मुसलमानों को प्रताड़ित होने देना तो दूर, अतिरिक्त सामाजिक सुरक्षा देते गए जिसमें 'Muslim personal law board' का गठन भी शामिल था।
इन सबों का परिणाम यह हुआ कि कैंसर रूपी मुसलमान भारत में हिन्दुओं के वनिस्पत 150% दर से जनसंख्याँ बढ़ाते गए और नतीजा हम सबों के सामने है।लगता है हमनें विगत के 'मुसलमानी इतिहास' से कुछ नहीं सीखा।आज कट्टरवादी मुसलमान सुरसा राक्षस जैसे हिन्दुओं को निगलने के लिए अपना मुँह बढ़ाए जा रहा है और हमारे अधिकाँश हिन्दू नेता उनके मुट्ठी भर वोट पाने के लिए उनके तलवे चाट रहे हैं( पढ़ें 'इस्लाम और राक्षसी प्रवृत्ति' https://articles.thecounterviews.com/articles/islam-demonic-culture/) ।कांग्रेस की ७० साल की गंदी राजनीति ने भारतीय हिन्दुओं को दब्बू बनाकर रख दिया है। इसी का परिणाम है कि हाल के PFI के दस्तावेजों में कट्टरपंथी जिहादिओं का मानना है कि हिन्दू कायर हैं और वे भारत में साल २०४७ तक इस्लाम थोपने में सक्षम होंगे। भला हो मोदी और उनके बीजेपी का कि कट्टरपंथी मुसलमानों की गुप्त चाल जनता के समक्ष आने लगी है और इसपर खुलेआम चर्चाएं भी हो रही है।मोदीराज की यही बात मुसलमानों एवं उनके तलवेचट्टुओंको खल रही है और उन्होंने देश में हाहाकार मचा रखा है।
आज हमारे हिन्दू नेता भी मुसलमान वोटों के लिए हिन्दू के ही दुश्मन बने हैं।गांधी और नेहरू के समय से ही शरणार्थियों को यह सांत्वना दी जा रही है कि भारत सरकार उन्हें नागरिकता प्रदान करेगी।वे पिछले ७० साल से आस बांधे प्रतीक्षा कर रहे हैं लेकिन कांग्रेस की सरकारों ने ऐसा होने नहीं दिया। लेकिन जब मोदी सरकार ने उन्हें नागरिकता दिलाने के लिए नागरिकता क़ानून लाया तो मुसलमानों के तलवा-चट्टों ने वोट बैंक की राजनीति के लिए उस क़ानून को निरस्त करने में जमीन आसमान एक कर दिया। कांग्रेस और कम्मुनिस्टों ने मुसलमानों को भड़का कर दिल्ली व देश भर में दंगे करवा दिए।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, जो एक देश-परस्त संस्थान है, अपने विघान में 'हिन्दू राष्ट्र' और 'अखंडभारत' की कल्पना की है और इसके लिए देश के ‘लिबरल गैंग’ एवं ‘छद्म-धर्मनिरपेक्षी’ उसे अक्सर साम्प्रदायिक होने की संज्ञा देते हैं। लेकिन इसमें साम्प्रदायिक क्या है, यह समझ के परे है।क्या विश्व के तीसरे सबसे बड़े धर्म-समूह के लिए एक विशेष ‘धर्म राष्ट्र’ की कल्पना करना गलत है ? अगर हाँ तो ५७ मुस्लिम देश और १६ ईसाई देशों के खिलाफ ये लिबरल गैंग क्योंनहीं भौंकते ? उनको संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार समिति के 'संज्ञान' के दायरे में क्यों नहीं लिया जाता ? (पढ़ें ‘भारत एक हिन्दूराष्ट्र हो’ https://articles.thecounterviews.com/articles/india-hindu-nation-rashtra-indian-religions/).
विभाजन विभीषिका और इससे सबक लेना अत्यावश्यक है।यह हमें बताता है कि जब मुसलमानो की प्रतिशत संख्यां 20% से ऊपर बढ़ जाए तो वे अपना सरिया क़ानून थोपना चाहेंगे और हिन्दुओं के हितैषी हो ही नहीं सकते। मुस्लिम परस्त नेता इस सत्य से आँखें चुरा रहे हैं और इससे का परिणाम है कि मुसलमान कैंसर की तरह भारत के जमीन पर पसरते जा रहे हैं।इनका एक ध्येय है ‘जनसंख्याँ बढ़ाओ इस्लाम लाओ’।शांतिप्रिय हिन्दुओं को ये मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों से पलायन या समर्पण के लिए वाध्य करते रहेंगे जैसा कश्मीर, असम, बंगाल, केरल,UP, राजस्थान,MP आदि प्रदेशों में होता जा रहा है।
मुसलमान हमें शान्ति से जीने नहीं देंगे। उनका क्या है ? उनके लिए मार-काट, हिंसा, बम धमाका आम चीज है जो हमें आधे से अधिक मुस्लिम देशों में देखने को मिल रहा है। किन्तु हिन्दू तो सदैव से शान्ति के उपासक रहे हैं। हिन्दुओं के पास मुसलमानों से लड़ने के लिए ‘जिहाद’ नामक अस्त्र नहीं है। हमारे पुरखे वैदिक युग से ही शान्तिप्रिय रहे हैं। इस शान्ति के मन्त्र से हम जिहादी दानवों को कैसे नियंत्रित करेंगे, हमें सोचना है। १४ अगस्त १९४७ का दिन हमें तब तक विभाजन विभीषिका का याद दिलाता रहेगा जब तक कि भारत 'भारतीय धर्मावलम्बियों' के लिए पूर्ण सुरक्षित न हो जाए चाहे वह हिन्दू, जैन, बौद्ध या सिख ही क्यों न हो।इस विभीषिका के और भी पहलू हैं जिनका वर्णन अन्यत्र किया गया है।