चलते चलाते : भीम-मीम
भीम-मीम! के नारे वाले,
खोल!अक्ल के भी ताले।
नहीं हिमालय की चोटी से
छद्मबेष में दूषित-मति से।
तुम जो नारे लगा रहे हो,
रोहिंग्या को बसा रहे हो,
देशी-दुश्मन! बेढंगा हो।
भड़काने, दंगा आये हो।
शुद्र वंश,पहले हिन्दू हो!
आर्यावर्त के रखवाले हो।
वेदों में तुम वनवासी हो,
मनुस्मृति में अनुशाषित हो।
सेवाओं में नियुक्त रहे तुम,
व्यवसायों से युक्त रहे तुम।
ब्राह्मण ने तो त्याग किया है,
व्यवसायों को बाँट दिया है।
भिक्षाटन कर,शिक्षा दे कर,
आर्यावर्त उत्कर्ष पर लाकर।
निजहित में सन्यासी बन कर,
देशभक्ति,जन-जागृति दे कर।
संविधान के आरक्षण से,
बने हुए हो! तुम अपंग से।
तेरे'वो'व्यवसाय कुशलता,
हाथों तेरे, रहा फिसलता।
नहीं रहा तुझमें वो जज्बा।
बाजारों पर तेरा कब्जा।
मनुवादियों को जप-जप के,
बनो न तुम बकरे! मुल्लों के।
तुम तो!अपनी माँ-बहनों के,
इज्जत भी न बचा पा रहे।
दलित-औरतें भी हैं लुटती,
कहाँ तुम्हारी हिम्मत जाती ?
मुँह में दही जमा छुप जाते!
दलितों के बस्ती जब जलते।
मुल्लों के तो गली-मोहल्ले,
पिट-लुट कर हो मारे जाते।
जहाँ सुरक्षित हो सदियों से,
देश-विरुद्ध हो,साजिश रचते।
बन जाते शतरंज के मोहरे,
लोभ से तुम परिवर्तित होते।
नितप्रति ही हो रहे प्रताड़ित,
गली-मोहल्लों में मुल्लों से,
देख दरिंदगी पाकिस्तान के
हुंकार उठी न किसी गली से।
मनुवादियों ने तो तुमको,
सारा है अधिकार दिया।
संविधान औ मुल्लों ने तो!
तुमको! स्थायी शुद्र किया।
अपनी हरकल पर ओ गुर्गे,
इतना भी न इतराना,
चढ़ते-चढ़ते पेड़ ताड़ के,
तुम खजूर पर गिर जाना।।
डॉ सुमंगला झा।