राम जन्मभूमि, सनातन धर्म और हमारे शंकराचार्य
आज हिन्दुओं के गुरु माने जानें वाले शंकराचार्य हर जगह ख़बरों में हैं कि ये राम जन्मभूमि न्यास के आमंत्रण पर नहीं आ रहे। सवाल उठता है कि कौन हैं ये शंकराचार्य ? बारहवीं या तेरहवीं सदी के मुसलमान अक्र्रांताओं द्वारा हिन्दुओं पर ढाए गए अनाचार, तदोपरांत अंग्रेजों की गुलामी सह रहे समस्त भारत के सनातनियों पर अत्याचार से लेकर स्वतंत्रोत्तर कांग्रेस द्वारा सनातन या हिन्दू धर्म की अवहेलना के दौरान इनकी क्या भूमिका रही है? जब राक्षसी धर्म के आक्रांताओं ने हमारे हजार्रों मंदिरों को तोड़ हमारी आस्था पर चोट पहुँचा रहे थे तब कहाँ थे हमारे शंकराचार्य ? क्या उस समय सनातनियों के उत्थान के लिए इनकी कोई पहल हुई ? जब नेहरू के कोंग्रेसी सरकार ने सनातन धर्म पर बेड़ी लगा अन्य तथाकथित अल्पसंख्यक धर्मों को अग्रसर कर रहे थे तब कहाँ थे इनके विरोध के स्वर ? जब लाखों करोड़ों सनातनियों ने राम व कृष्ण जन्मभूमि के जीर्णोद्धार के लिए अपने जीवन दाव पर लगा दिए थे तब हमारे महागुरु क्या कर रहे थे ? आज ऐसी सैकड़ों सवाल आम हिन्दुओं के जनमानस पर छाए हुए हैं जिसका कोई उत्तर नहीं है।
आज एक ओर जहाँ भगवान् राम के प्रति सनातनियों की आस्था चरम पर है वहीं दूसरी ओर सनातनी हिन्दुओं से घृणा करने वाले कुछ लोग राक्षसी वृत्ति के अनुसरण करने वालों की तुष्टीकरण में इस तरह लग्न हैं कि वे २६ या २८ सिरों वाले रावण की तरह प्रतीत हो रहे हैं जिनका विनाश आवश्यक है। इस नए रावण के अनेकों सिरों में चोर, ठग, घोटालेबाज, फिरौतीबाज, राक्षसी वृत्ति के जिहादी तथा सनातनी हिन्दुओं को गाली व अपशब्द कहने वाले कुछ अशिष्ट भी हैं। ये आज के दिन हिन्दुओं और उनके हितैषी को पानी पी पी कर कोसते रहते हैं। कभी कभार तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि इस रावण रूपी राक्षस का वध सर्व प्रथम होना चाहिए।
हम जानते हैं “हिन्दू धर्म” एक संज्ञा के रूप में कुछ वैयक्तिक धर्म या आस्थाओं के शुरू होने के बाद शायद डेढ़ दो हजार साल पूर्व ही प्रचलित हुआ है जिसके पूर्व यह 'सनातन, वैदिक या आर्य' धर्म जाना जाता था। विश्व की प्राचीनतम धर्म होने की वजह से इसमें कई विषमताएँ भी आईं होंगी जिसके कारण इसमें से पहले जैन, फिर बौद्ध और फिर सिख धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। हमारे ही कुछ हिन्दू भाई यह भी कहते हैं कि हिन्दू धर्म नहीं अपितु एक जीवन शैली है और वे शायद ठीक ही कहते हैं। तभी तो मुस्लिम आतताइयों द्वारा ६०० सालों से अधिक विध्वंसात्मक, युद्धरत, राजनीतिक उथल-पुथल, हमारे आध्यात्मिक धरोहरों को तहस नहस करने के बावजूद, हमारी नस-नस में बसी जीवन शैली के सस्कारों एवं संस्कृति को नष्ट नहीं कर पाए।
अनेकों विद्वान व शंकराचार्य अपने धर्म की बारीकियों से भली भाँती परिचित थे, हैं और रहेंगे भी। लेकिन स्वतंत्रोत्तर भारत के अनेक राज्यों की मूढ़ प्रसाशन-व्यवस्था ने अध्यात्म वोध कराने वाले संस्कृत विद्यालयों को बंद कर सनातन वैदिक धर्म, समृद्ध संस्कृति पर आघात किया है। परिणाम स्वरूप संस्कृत विद्वानों के कमी के कारण आम हिन्दुओं का आध्यात्मिक ज्ञान से वंचित रहना लगभग निश्चित है। सनातन धर्म एवं समृद्ध संस्कृत भाषा का ज्ञान भले ही आज के हिंदूओं को कम है परन्तु इसका यह मतलब कतई नहीं कि वे धर्मरत नहीं हैं।
सुसंस्कृत, समृद्ध, जिज्ञासु-जिजीविषा युक्त, उदारता पूर्ण, पवित्र, आभिजात्य जीवन शैली ही कमोवेश हिन्दू धर्म है या कुछ और यह मैं नहीं जानता। अधिकाँश हिन्दुओं का जीवन यापन तो इन्हीं क्रिया-कलापों में व्यतीत हो समाप्त हो जाता है। कुछ इने गिने लोग ही, उनमें भी ख़ासकर वृद्ध, कुछ इने गिने प्रसिद्द मंदिरों या धामों में भगवान् के प्रतिरूप के चंद सेकण्ड्स के लिए दर्शन कर पाते हैं फिर भी वे अवश्य जाते हैं यद्यपि कई स्थलों पर भीड़ एवं अव्यवस्था के कारण ध्यानस्थ होने से पहले ही उन्हें धक्का देकर बगल कर दिया जाता है।
स्वतन्त्रता-पूर्व क्रूर मुसलमान साशकों ने हमारे आध्यात्मिक ज्ञान के प्रतिष्ठानों को बर्बरता से तहस नहस कर हमें अपने आध्यात्म से अलग कर दिया था। अनेकानेक अत्याचार के बावजूद भी ब्राह्मणों ने संस्कृत भाषा के पठन-पाठन एवं आध्यात्मिक ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखने का भरसक प्रयत्न किया है। परन्तु स्वतंत्रोत्तर नेहरूजी ने हमें एक ऐसा धर्म निरपेक्ष भारत दिया जिसमें हम अपने अध्यात्म से परे होते जा रहे हैं। हिन्दू विरोधी कई नीतियों के कारण हमें अपने विद्यालयों में संक्षिप्त में भी वेद, उपनिषद, गीता और पुराणों काज्ञान नहीं मिल सकता है। हिन्दू हो कर भी हम भारत में ही अपने हिन्दू धर्म के आध्यात्म ज्ञान से वंचित हैं।
सबसे बड़ा प्रश्न उठता है कि हिन्दुओं के लिए भारत में क्या किए जा सकता है ? आज जाति-विषमता आपस में कटुता लाने लगी है अतः सबसे पहले तो जातिप्रथा को समाप्त कर सारे हिन्दुओं को एकता के एक सूत्र में बांधा जाना चाहिए। इसके लिए क़ानून बनाने और सामाजिक परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। कोई भी हिन्दू अपने दैनिक जीवन में धार्मिक आयामों से वंचित न रहे चाहे वह मंदिरों में प्रवेश, दर्शन, पूजापाठ, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह या श्राद्ध विधि ही क्यों न हो। दूसरी प्राथमिकता हिन्दुओं में आध्यात्मिक ज्ञान देने की है जो विभिन्न स्तरोंपर होना चाहिए... प्रारंभिक, व्यावहारिक और विशिष्ट। प्रारंभिक ज्ञान हर धर्म के बच्चों को उनकी स्कूली पाठ्यक्रम के मार्फ़त हो। व्यवहारिक आध्यात्म वे हैं जिन्हें हिन्दू अपने दैनिक जीवन में अनुकरण कर सके।
यह कार्य मंदिरों, सभागृहों, सार्वजनिक स्थानों में सत्संगों तथा विभिन्न मीडिया या टीवी चॅनेल्स के मार्फ़त प्रशिक्षित पंडितों या ज्ञानियों द्वारा कारगर रूप से किया जा सकता है। विशिष्ट आघ्यात्म वे विषय हैं जिनसे वैदिक / सनातनी आध्यात्म में निपुणता मिल सके और वे लोग अन्यान्य स्तरों पर हिन्दुओं को प्रवचन देकर उनका उत्थान कर सकें । बड़े बड़े मंदिरों से प्राप्त धन देश के हिन्दुओं की आध्यात्मिक उत्थान व विकास के लिए ही होना चाहिए, इसलिए आवश्यक है कि मंदिरों का नियंत्रण हिन्दुओं के हाथ में हो। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में मंदिरों के धन दुरुपयोग जो सरकार इस्लामियों या ईसाइयों के तुष्टिकरण के लिए देती है, उसे पूर्णरूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। समय आ गया है कि हिन्दुओं पर हुए ऐतिहासिक अन्यायों का निवारण कर उनके धार्मिक संस्थान, आध्यात्मिक ज्ञान, सनातन वैदिक धर्म का विकास किया जाना चाहिए।
आज की विषम धार्मिक परिस्थितियों में हमारे धर्मगुरु शंकराचार्य किस तरह की भूमिका निभा सकते हैं यह उनको तय करना है। यह तो निश्चय ही है कि आम सनातनी जनमानस पर उनको थोपा नहीं जा सकता। इस्लाम में मुल्लों को लगभग उनके अल्लाह का ठेकेदारों के रूप में थोप दिया गया है जिससे आम मुसलमान निकल नहीं सकते। इसी तरह ईसाई धर्म में भी बड़े बड़े गिरिजाघरों में धर्म के ठेकेदारों का एकाधिकार है जिसका संचालन रोम से होता है। यह बात तो आज सर्व विदित है कि किस प्रकार चर्च में आम लोगों व वहाँ रह रहे नन या देवदासियों का यौन शोषण होता रहा है। इन सबों के बावजूद भी ईसाई लोग हर रविवार को उनका भाषण सुनने चर्च जाते रहे हैं। ऐसे में सनातन ही एक ऐसा प्राचीनतम धर्म है जिसकी अवहेलना और दुर्गति होती चली आ रही है और हमारे धर्म गुरु व शंकराचार्य इन सब से या तो अनभिज्ञ हैं या फिर उदासीन। ऐसे में जब आज राम जन्मभूमि का जीर्णोद्धार हो रहा है और रामलला का प्राण-प्रतिष्ठा से सारे हिन्दू उत्साहित हैं तो इन शंकराचार्यों का वहाँ न होना कोई मतलब नहीं रखता। बेहतर होता कि ये शंकराचार्य आगे बढ़कर आने वाली प्राण प्रतिष्ठा कार्य में सलाह व सहयोग देते ।