धारावाहिक: मेरी, तेरी, उसकी बातें: मेहनती चूहे (भाग-2)
विदेशों की बातें तो मैं नहीं जानती, किस्सों में पढ़ा था कि एक बाजे वाले ने बाजा बजाते हुए सभी चूहों को अपनी ओर कुछ इस तरह आकर्षित किया कि वे बाजे वाले के पीछे चलते-चलते नदी के पानी के अंदर तक चले गए एवं वहीं डूब कर मर गये। कहानी में सच्चाई कितनी है ये तो कहानीकार ही जाने परन्तु जहाँ तक मेरा ख्याल है ये चूहे! अनुमानित जिहादी समूहों की तरह सर्वव्यापी एवं कभी न ख़त्म होने वाली प्रजाति है।
भारत के अलावे अन्य देशों में लगभग सभी जगह पर अल्लाह की देन वाले पैदाइशों की तरह ही दिन दूनी रात चौगुनी के हिसाब से बच्चे उत्पादन में लगे हुए रहते हैं, लेकिन ये टायर के पंक्चर बनाते नहीं हैं, टायरों को पंचर कर, इंजन के तारों एवं पेट्रोल के पाइपों को काट कर, मरम्मत करने वालों के लिए रोजगार पैदा करते हैं।
आज श्रीनगर (कश्मीर) के चूहों की बातें करते हैं जहाँ के एयरफोर्स स्टेशन में हमने साढ़े तीन साल उन जिहादी समूहों के डर के साये में बिताये हैं। यहाँ एयरफोर्स स्टेशन के आवास परिसर के मुख्य द्वार से हमारे लिए बाहर निकलने की पूर्ण मनाही थी। स्वतंत्र रूप से या अकेले परिसर के बाहर जाना, सब्जी-भाजी या कपड़े आदि की खरीदारी; साढ़े तीन साल की पोस्टिंग के दौरान कभी सम्भव नहीं हो पाया। बात अजीब लगेगी लेकिन सच्ची है।
वहाँ के चूहे भी जिहादियों की तरह ही खतरनाक, गन्दे, तगड़े एवं डरावने होते थे। लकड़ियाँ काटना तो उनके लिए मामूली बातें थी, जिनमें वे सदैव लगे रहते थे। उनके दाँत इतने मजबूत थे कि वे तो लोहे के पत्तर भी काट देते थे। यहाँ तक कि खिड़कियों के लोहे के जाल को काट कर अपने प्रवेश करने की जगह बना लेते थे... कैसे?...वे तो वही जाने।... शायद जिहादी हमास-आतंकियों जो सीमाओं के कांटेदार तारों को काट कर इज्राइल में घुस जाते हैं उन्हीं के भाई अलकायदा का अनुवांशिकी उनके अन्दर भी किसी विधि चला गया होगा!.... लकड़ी वाले पैकिंग के खाली बक्से जो गैराज में रखे जाते थे, उसमें सुराख बना कर वे आतँकी वहाँ घुस जाते थे। वहाँ के खाली बॉक्स उनके निवास स्थान बन जाते थे जहाँ वे चुहियों को इकट्ठा कर अपना परिवार बसा लेते थे।
श्रीनगर के स्थाई एवं अस्थाई निवासों के ढलाव जैसे छत के नीचे कमरे को गर्म रखने के लिए प्रायःलकड़ी के तख्ते की एक समतल परत लगाई जाती थी। छत और लकड़ी के परत के बीच के हिस्से चूहों एवं कबूतरों का स्थाई निवास बन जाता था। कही न कहीं से छेद कर वे छत एवं तख्तों के बीच कुछ जगह बना ही लेते थे, वहाँ से वे झाँकते भी थे एवं घरवालों के घर के अन्दर आ कर अपनी जरूरत की चीजें भी ले जाते थे। आखिर जीने का अधिकार तो सभी को है, ठंढ से बचाव तो सभी को चाहिये होता था। फिर हम हिंदुस्तानियों को तो महात्मा गाँधी ने अहिंसा का एक तरफा ऐसा पाठ पढ़ाया कि हम सबकुछ बर्दाश्त करने के लिए मजबूर हैं। हमें कत्ल करने वालों के साथ भी तब तक मिलजुल कर रहने की शिक्षा दे दी गयी है जब तक कि कातिल हमें परिवार सहित सताते हुए, मौत के घाट न उतार दें! यहाँ तक कि गाँधीजी ने यह भी कहा है हमें मुसलमानों के हाथों मौत मिले तो भी खुशी से बिना किसी शिकवे शिकायत के, बिना हृदय में घृणा पाले हुए उसे सहज स्वीकार करना चाहिए क्योंकि हमारे मरने के बाद एक नयी दुनियाँ का विकास होगा। परन्तु छोड़िए! गाँधी और नेहरू ने हिन्दुओं के साथ जो घात किया है वह तो राजनीति की बातें हैं, ज्यादा नहीं खींचना है। सहअस्तित्व की प्राचीन धारणा, उपदेश पालन एवं प्रकृति की सहज स्वीकृति के तहत चूहे यदि हमें नुकसान पहुँचाते थे, डराते भी थे तो सहजता से उसे स्वीकार करना हमारे लिए मजबूरी और अनिवार्य ही था।
अनेक सावधानी बरतने के बावजूद ठंड और बर्फबारी के दौरान चूहे प्रायः घर के अंदर आ ही जाते थे। रसोई में जो कुछ मिलता; खा कर कहीं न कहीं दुबक जाते थे। बुखारी वाला कमरा, बुखारी के पास रखी कोयले से भरी बाल्टी के अलावे भी नजर से परे गर्म स्थान उनके पसंदीदा जगहों में शामिल थे। मुश्किल होती थी जब बुखारी में कोयला डालना होता था। विभिन्न आकार के चूहे कभी मोटे तो कभी छोटे भी अचानक आस -पास से कूद कर सामने आ जाते थे। मुँह से चीख निकल जाती थी परन्तु उनसे छुटकारा पाने का उपाय किसी के पास नहीं था ऐसे वहाँ के चूहों ने खाने के सामान चुराने के अलावा ज्यादा नुकसान नहीं किया था।
बोरी भर अखरोट जो उस ठंढ के समय सस्ते होने के कारण प्रायः हर घर में पाए जाते थे लगभग बीस दिनों में ही गायब हो गए थे। हमने उस समय ज्यादा ध्यान नहीं दिया था क्यों कि मेरे बच्चे छोटे थे, वे समूचे दिन अपने दोस्त बच्चों के साथ अखरोट, दरवाजे और उसके चौखटे के बीच रख कर तोड़ते एवं खाते रहते थे। बच्चों के लिए उन ठंढ के दिनों में घर के अंदर अखरोट तोड़ना खेल की ही तरह होता था। अतः अखरोट के ख़त्म हो जाने के बाद,खत्म क्यों हो गया? इस पर ज्यादा ध्यान देने के स्थान पर बीस रुपैये किलो के हिसाब से आने वाले अखरोट की दूसरी खेप भी आ जाती थी। दरवाजे और चौखटे के किनारे का कहना ही क्या ? जगह जगह से उसके किनारे के हिस्से थकुच्चा हो चुके थे। लगता था किसी ने हथौड़ा मार कर उसे पचट्टा किया हो, ये मेरे ही निवासस्थान का नहीं बल्कि परिसर के लगभग सभी निवास स्थान जहाँ बच्चे होते थे उनके दरवाजों का भी यही हाल था। नए आने वाले अफसरों के बच्चे जिन्हें ये विशेष तरीका नहीं पता था उसे भी अखरोट तोड़ने का सबसे आसान तरीका बच्चों द्वारा ही बता दिया जाता था।
जो भी हो राम-राम जपते साढ़े तीन साल बीत गए, स्टेशन के स्टेशन कमांडर एवं लगभग सभी ऑफिसर की रुचिकर पोस्टिंग कश्मीर से बाहर हो गयी थी। हमारा सोचना था कि हमें घाटी से बाहर निकालने या हमारे पोस्टिंग को शायद भुला दिया गया है; लेकिन सच्चाई में ऐसी कोई बात नहीं थी। अचानक एयरफोर्स के पोस्टिंग करने वाले अफसरों को हमारी याद आयी एवं हमारी भी पोस्टिंग बैंगलोर के लिये आ गयी।
सरगर्मी और खुशी की लहरों के बीच मार्च के अंतिम सप्ताह में सामानों की पैकिंग के लिए लकड़ी और स्टील के ट्रंक निकाले जाने लगे एवं पैकिंग कार्यक्रम आरम्भ हो गया। लगभग प्रत्येक सामान के पीछे से ,सभी आलमारी के ऊपर-नीचे से बॉक्स के अंदर से, सोफे के गद्दों के अंदर से जो ऊपर से बिल्कुल सलामत दिखते थे; अखरोट एवं बादाम के फल पिटे हुए बहुसंख्यकों की तरह निकलने आरम्भ हो गए । वे सभी फल दिखने में साबूत थे; सिर्फ एक छोटा सा छेद था जैसे किसी ने अखरोट एवं बादाम पर पतली सी कांटी ठोंक कर निकाल ली हो, कम से कम बाहर से तो ऐसा ही दिखाई देता था।
पैकिंग करने वालों ने सारे अखरोट एक जगह इकट्ठे कर दिए थे अतः उन्हें फेंकने से पहले अपने ह्रदय में ख्याल आया क्यों न कुछ अखरोटों को तोड़ कर देख लिया जाए शायद वह यूँ ही अंदर से भी साबुत ही हो !
पैकिंग करने वाले मददगारों के जाते ही जिज्ञासा वश अखरोट तोड़ने लगी लगभग दस अखरोट और उतने ही बादाम भी तोड़े लेकिन क्या मजाल कि किसी में से छोटा सा भी अखरोट का टुकड़ा निकला हो ! बिल्कुल खोखला। सारी मेहनत बेकार गयी। इन जिहादी मेहनती चूहों ने अखरोट और बादाम के अंदरूनी हिस्सों को खखोर कर खा लिया था, खोखला कवच छोड़ दिया था।
इतनी सफाई से ,पूर्ण साबूत दिखते , उस सख्त लकड़ी के छिलके के अति सूक्ष्म छिद्र से अंदर के सारे गूदे, चूहों ने कैसे निकाल खाये होंगे ? ये मेरे लिए आज भी हैरत का विषय ही है। चूहे की ताकत और उसकी बुद्धि का अंदाजा लगाना आसान नहीं है ; शायद इसीलिए गणपति ने उन्हें अपना वाहन बनाया है क्योंकि वे भी राहुलासुर की तरह छिद्रान्वेषण में पारंगत होते हैं।