
छोटी छोटी बातें; भाग-४ (गोलू बछड़ा)
जहाँ तक मुझे याद है बचपन में हमें गाय का शुद्ध दूध ही पीने के लिए उपलब्ध कराया जाता था। हमारे आस - पास के लगभग सभी सम्पन्न घरों में 'गौ पालन' सम्मान का प्रतीक था, प्रतिदिन की आवश्यकता के अनुसार घर में पालित गाय से दूध उपलब्ध हो जाता था। कभी कभार उत्सवों या त्यौहारों के समय ज्यादा मात्रा में दूध की जरूरत होने के कारण ग्वालों या अन्य किसी गौ पालक से आयात कराया जाता था। हमारे घर में भी दो दुधारू गायें थी जो बारी - बारी से घर में खर्च होने वाले दूध की आपूर्ति करती थी। उसमें से एक का नाम गौरा और दूसरे का नाम बुधनी था।
गौरा अपने नाम के अनुकूल सीधी, शान्त, सूधी थी। उसके बछड़े भी काफी अच्छे और सीधे थे, सूधी से तात्पर्य है कि किसी बच्चे या बड़ों पर सिंघ से हमला नहीं करती थी। उसे और उसके बच्चे को हम बच्चे जब -तब सहलाया करते थे, उसकी स्वीकारोक्ति का तरीका अनोखा था, वह अपनी गर्दन ऊंची कर देती थी और आँखें बन्द कर लेती थी। इसके ठीक विपरीत हमें बुधनी के आस -पास भी फटकने की हिम्मत नहीं होती थी। वह सिर्फ माँ - पिताजी के पास लाड़ जताती थी या फिर देख -रेख करने वाले नौकर को अपने पास आने देती थी। दोनों गायों को उस समय का प्रचलित साबुन लाइफबॉय से नहलाया जाता था फिर नौकर उसे एक विशेष ब्रश से उसकी कंघी करता था। आस - पड़ोस के अन्य गौ पालक परिवार इसका उपहास भी करते थे फिर भी पिताजी का कहना था कि इस प्रकार के रख रखाव से गाय खुश हो कर ज्यादा दूध देती है। मैं और मेरे छोटे भाई को गाय से कितना लगाव था ये तो हमें नहीं मालूम परन्तु पाइप से गाय पर पानी छिड़कना हमें अच्छा लगता था। इसके एवज में गाय हमें स्वयं को एवं अपने बछड़े को स्पर्श करने देती थी।
समयानुसार बुधनी गाय ने एक गोले रंग (लाल मिट्टी के रंग सा) के बछड़े को जन्म दिया जो बहुत ही प्यारा दिखता था। जब तक वह एक से डेढ़ महीने का था तो गाय हमें छूने की इजाजत नहीं देती थी। बुधनी गाय के नुकीले सिंघ अत्यंत घातक हथियार थे जिसे आक्रमण के अंदाज में हिलते देख कर ही हम सहम जाते थे। उसका छोटा सा बछड़ा भी मरखंडा ही निकला था। हाथ से पत्ते खाने के बाद भी वह हमें स्वयं स्पर्श करने नहीं देता था, मारने को झपटता था। इसलिए उससे दूर ही रहते थे।
हमारे घर के बगल तथा पिछवाड़े में अमरूद के बड़े -बड़े तीन पेड़ थे, जिसके अमरूद बारी बारी से पकते रहते थे, पेड़ पर बैठ कर ताजे अमरूद खाना मेरा लगभग नित्यप्रति का ही काम था। स्कूल से आते ही उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका नंदन, पराग या कोईअन्य कहानी की किताब ले कर पेड़ की ऐसी डाली पर जहाँ से दो या तीन डालें एक ही जगह से फूटती है, मैं जा कर बैठ जाती थी। उसके कई फायदे थे, कोई आवाज दे भी तो सुनाई नहीं देती थी और अपने आनन्द में कोई व्यवधान उपस्थित नहीं होता था। साथ ही अपने पसन्द के अमरूद भी खाती रहती थी।
एक दिन अपने में ही मग्न मैं पेड़ पर बैठी किताब और अमरूद दोनों का आनन्द ले रही थी कि नौकर गोलू बछड़े को पेड़ के तने में लम्बी रस्सी से इस तरह बाँध कर चला गया कि वह वहाँ पेड़ के नीचे आस- पास के घास को आराम से चर सके। जब शाम होने को आई, पेड़ से मेरे उतरने का समय हुआ तो गोलू बछड़े को देख, मैं सावधान हो गई थी। वह पेड़ के तने से थोड़ा दूर घास चर रहा था तो मैं धीरे -धीरे बिना किसी आवाज के पेड़ से उतर अपना पाँव जमीन पर रखने जा ही रही थी कि अचानक बछड़ा दौड़ कर आया और मेरे कमर के पास जबरदस्त तरीके से हुर्रा मार, मुझे जमीन पर चारों खाने चित्त पटक दिया। जमीन पर घास और कीचड़ के कारण ज्यादा चोट तो ज्यादा नहीं आई थी परन्तु मेरी किताबें जमीन पर बिखर गए थे। बछड़ा मुझे जमीन पर पटकने के बाद घास चरने लगा था। मैं अपना चोट सहलाती हुई उठने के उपक्रम में किताबें उठाने की कोशिश कर ही रही थी कि बछड़े ने फिर से अपने सिंघ रहित सिर से हुर्रा मार मुझे जमीन पर पटक दिया। इस बार चोट से ज्यादा मुझे गुस्सा आ गया था इसीलिए हाथ के पहुँच में पड़ी एक लकड़ी उठा कर उसे डराने लिए "हट -हट - हट की आवाज करते उसे डराने की कोशिश की परन्तु वह डरा नहीं, मेरी आवाज से बेअसर घास चरता रहा। मुझे ऐसा एहसास हुआ कि अब बछड़े का ध्यान मुझ से हट गया है। मैं सावधानी से धीरे - धीरे उठ बैठी, मेरी दृष्टि बछड़े के आँखों पर थी उसे घास चरने में मग्न देख, किताबों का मोह छोड़ उठ कर तेजी से भागने की चाहत लिए ज्यों ही उठ कर खड़ी होने की कोशिश कर रही थी कि अचानक वह दौड़ कर आया और फिर से मुझे हुर्रा मार जमीन पर पटक दिया। लकड़ी हाथ में थी ही तो एक - दो मैंने भी उसके चेहरे पर हट -हट -हट चीखते हुए जमा दिया था।... उफ्फ ....फिर तो जैसे मल्लयुद्ध आरम्भ हो गया था लकड़ी से एक या दो बार मारने के एवज में उसने मुझे जमीन पर, उस कीचड़ वाले घास में घुलटा - घुलटा कर जाने कितनी बार अपने सिर से मारता जा रहा था कि मैंने गिनना ही छोड़ दिया था। वह मुझे उठने का या सम्हलने का भी मौका नहीं दे रहा था ज्यों ही उठने की कोशिश करती, वह भाग कर आता मुझे हुर्रा मार कर जमीन पटक देता, शायद वह मुझे मारता ही जाता यदि पिताजी अचानक मुझे देखने नहीं आ जाते!
छोटे से मरखंडे बछड़े से पिटने के चोट का इलाज तो कई दिन चला परन्तु उसके आक्रमण का असर ऐसा बना रहा कि अभी भी कोई गाय या बछड़ा मेरे पास आ जाता है तो मैं छिटक कर दांयें -बाँयें हो जाती हूँ।